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हमदर्दी मानवता का गौरव है
एन. रघुरामन का कॉलम:
इस हफ्ते मैं एक फाइव-स्टार चेन की नई होटल में रुका, जो भारत में उसकी 100वीं होटल है। स्वाभाविक है कि वहां सबकुछ चमकदार था, सिवाय मानवता के, जो किसी भी हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री का मुख्य गुण है। मुझे लगता है कि लोगों को चुनकर काम पर लगा देना काफी नहीं है क्योंकि हॉस्पिटैलिटी उद्योग हर ब्रांड की अनोखी संस्कृति से चलता है। वही संस्कृति अमीरों को उस ब्रांड की ओर खींचती है।
प्रवेश पर मौजूद सुरक्षाकर्मी से लेकर मेहमानों को रूम तक ले जाने वालों में निरुत्साह दिख रहा था क्योंकि सभी विभिन्न पृष्ठभूमियों से थे और इस विविधता में चेन की मूल संस्कृति खो गई थी। चूंकि मैं हॉस्पिटैलिटी पृष्ठभूमि से हूं इसलिए मैंने 20 मुख्य चिंताएं सूचीबद्ध कीं। ऐसी प्रॉपर्टी के शीर्ष एग्जीक्यूटिव मेहमानों के साथ एक मिनट भी नहीं बिताते, लेकिन यहां एग्जीक्यूटिव ने मेरे साथ दो घंटे बिताकर सभी परेशानियां लिखीं और सुधार का वादा किया। मुझे यकीन है उन्होंने ऐसा किया होगा।
लेकिन एक चीज वे ठीक नहीं कर पाएंगे। वह है कर्मचारियों में हमदर्दी, प्रेम, उदारता और परवाह लाना। होटल में रहने वाले मेहमानों को कॉम्प्लीमेंटरी ब्रेकफास्ट मिलता है। जब मैं दूसरे दिन ब्रेकफास्ट एरिया में गया, मुझे एक युवती ने रोककर पूछा, 'आपका रूम नंबर क्या है?' इस होटल मैनेजमेंट ग्रैजुएट के लहजे में अनकही बात थी, 'मैं यहां की बॉस हूं, तुम मुझे रूम नंबर बताए बिना रेस्त्रां में घुसकर मुफ्त नाश्ता नहीं कर सकते।' मैंने उसे नंबर बताया।
आमतौर पर स्टार होटलों में वही व्यक्ति आपका स्वागत कर टेबल तक ले जाता है और पूछता है, 'आपका स्टे कैसा है? सब आरामदायक है? मैं आपकी कोई अन्य मदद कर सकता हूं?' और फिर धीरे से पूछता है, 'अगर बुरा न मानें तो क्या मैं आपका रूम नंबर पूछ सकता हूं?' यकीन मानिए ऐसी पूछताछ से आप खुद को राजा या रानी महसूस करते हैं, जो कि स्टार होटलों का मुख्य काम है।
धैर्य से बात करने की यह क्षमता कर्मचारियों को महीनों संस्कृति का पाठ पढ़ाने से आती है। दोनों ही तरीकों का नतीजा समान है- रूम नंबर पता चलना और यह देखना कि रेस्त्रां में कितने लोगों ने भोजन किया। लेकिन दूसरे तरीके से मेहमान संतुष्ट होते हैं। प्रशिक्षण कार्यक्रम कर्मचारियों के दिल में हमदर्दी पैदा कर यह पर्फेक्शन लाते हैं, जो मैनेजमेंट के पाठों के बोझ तले दब जाती है।
इससे मुझे दो हफ्ते पहले का एक दृश्य याद आया। एक महिला और उसका चार वर्षीय बच्चा इंदौर एयरपोर्ट का एकमात्र लाउंज इस्तेमाल करना चाहते थे, जिसे युवा उद्यमी सुधांशु शाह चलाते हैं। उस लाउंज में पैसे देकर या ऐसे क्रेडिट कार्ड के जरिए प्रवेश कर सकते हैं, जो 2 रुपए से 25 रुपए तक की फीस पर प्रतिकार्ड एक व्यक्ति को प्रवेश की सुविधा देते हैं। लेकिन महिला के पास एक ही कार्ड था, जिसका मतलब था कि दोनों में से कोई एक प्रवेश कर सकता था।
कर्मचारी ने प्रवेश देने से इनकार कर दिया क्योंकि उसे एक कार्ड पर दो लोगों को प्रवेश देने की अनुमति नहीं थी। इस बातचीत को सुधांशु दूर से सुन रहे थे। सुधांशु ने कर्मचारी से इशारों में कहा कि उन्हें आने दो। जब मैंने उनसे इसका कारण पूछा तो वे बोले, 'सर एक चार साल का बच्चा क्या खा सकता है? मेरा भी इतना ही बड़ा बच्चा है।' मैंने मुस्कुराकर उन्हें शाबाशी दी और चला गया।
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