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सम्पादकीय
Emergency in India: याद रहें आपातकाल के सबक, तानाशाही से उपजा था इमरजेंसी का विचार
Gulabi Jagat
25 Jun 2022 6:02 AM GMT
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ओपिनियन न्यूज
केसी त्यागी। इतिहास कैसे स्वयं को दोहराता है, इसकी एक झलक पिछले दिनों दिल्ली की सड़कों पर दिखाई दी। प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की ओर से नेशनल हेराल्ड मामले में राहुल गांधी से पूछताछ के विरोध में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं ने सड़क पर उतरकर जमकर हंगामा किया और इसे 'सत्याग्रह' का नाम दिया। कुछ इसी प्रकार का आचरण 47 वर्ष पहले भी दिल्ली की सड़कों पर तब देखने को मिला था, जब इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर निर्णय देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को अयोग्य करार देकर छह वर्षो के लिए चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी।
श्रीमती गांधी पर रायबरेली के चुनाव में स्वामी अवैतानंद को 50 हजार रुपये देकर प्रत्याशी बनाने, वायु सेना के विमानों का दुरुपयोग करने, डीएम-एसपी की अनुचित मदद लेने, मतदाताओं को शराब, कंबल आदि बांटने और तय सीमा से अधिक खर्च करने के आरोप लगाए गए थे। यह ऐतिहासिक फैसला 12 जून, 1975 को सुनाया गया। फैसला आते ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने श्रीमती गांधी के आवास पर पहुंचना शुरू कर दिया। जस्टिस सिन्हा के फैसले पर न सिर्फ आपत्ति जताई गई, बल्कि उनके पुतले भी फूंके गए। उन्हें सीआइए का एजेंट कहा गया।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के चलते विपक्ष ने राष्ट्रपति भवन के सामने धरना दिया, जिसमें भाकपा को छोड़कर लगभग सभी गैर-कांग्रेसी दल शामिल हुए। इसमें इंदिरा गांधी से इस्तीफे की मांग की गई, लेकिन उनके समर्थक सड़कों पर डंडा लेकर प्रदर्शन करने लगे। पड़ोसी राज्य हरियाणा में तो मुख्यमंत्री बंसीलाल विपक्ष को कुचलने की बात करने लगे। ऐसे ही माहौल में 22 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक बड़ी सभा का आयोजन किया गया। इसमें मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, राजनारायण आदि आमंत्रित थे। जेपी को इस सभा में पटना से आना था, लेकिन ऐन वक्त पर उनके विमान को उड़ने की अनुमति नहीं दी गई। इसके अगले दिन 23 जून को बोट क्लब पर एक रैली का आयोजन इंदिरा गांधी के समर्थन में किया गया। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने मंच से घोषित किया- 'इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा।'
विपक्षी दलों ने 25 जून को फिर से एक संयुक्त रैली आयोजित की। तब तक जेपी दिल्ली आ गए थे। रैली का संचालन उस समय जनसंघ के नेता मदन लाल खुराना कर रहे थे। जैसे ही अंतिम वक्ता के रूप में जेपी का नाम पुकारा गया, खचाखच भरा रामलीला मैदान नारों से गूंज उठा। उस समय लोकदल के प्रतिनिधि के साथ मैं भी मंच पर था। जेपी ने इंदिरा सरकार के अस्तित्व पर सवाल उठाते हुए देशवासियों से उसका असहयोग करने की अपील की। 25 जून को इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सशर्त स्थगनादेश तो दे दिया गया, पर उन्हें मताधिकार के अधिकार से वंचित रखा गया।
यह इंदिरा गांधी को रास नहीं आया और उन्होंने 25 जून को ही रात 12 बजे आपातकाल की घोषणा कर दी। इसी के साथ नागरिक अधिकार, स्वतंत्र विचरण, असहमति-विरोध के अधिकार, मुक्त लेखन आदि के दरवाजे बंद कर दिए गए। 26 जून की सुबह तानाशाही अमावस्या की काली अंधेरी रात की तरह छा चुकी थी। लगभग सभी प्रमुख नेता एवं लाखों कार्यकर्ता बिना कारण बताए जेल में डाल दिए गए। कई स्थानों पर पुलिस की ज्यादती देखने को मिली। उन दिनों लोकतंत्र की रक्षा करने लायक कोई संस्था नहीं बची। आपातकाल का विरोध करने वाले मीडिया का दमन किया गया। न्यायपालिका सत्ताधारी दल को नाखुश करने में संकोच करती दिखी। नौकरशाहों की चापलूसी के चलते प्रशासनिक संस्थाएं पंगु सी हो र्गई। उन दिनों स्थिति यह थी कि इंदिरा गांधी के करीबियों को छोड़कर अन्य सभी संदेह के घेरे में थे।
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा भी शक के दायरे आ गए और उन्हें भी हटा दिया गया। उन पर श्रीमती गांधी के मुकदमे के दौरान 'सक्रिय' न होने का आरोप लगा। तथ्य यह भी है कि जस्टिस सिन्हा के फैसले को प्रभावित करने का भी प्रयास किया गया। एक कांग्रेस सांसद जस्टिस सिन्हा से मिलने को प्रयासरत थे। उन्होंने सभी मिलने वालों को मना कर दिया। इस पर खुफिया अधिकारी उनके सचिव के घर पहुंचकर फैसला जानने के लिए दबाव बनाने लगे। जस्टिस सिन्हा ने सावधानी बरतते हुए अपने फैसला स्वयं टाइप किया। उन्हें उच्च स्तर से काफी प्रलोभन दिए गए, जिसमें उनकी पदोन्नति भी शामिल थी, लेकिन उन पर कोई असर नहीं पड़ा।
आपातकाल के दौरान समूचा देश जिस तरह सरकारी जुल्म-ज्यादती का शिकार बना, उसकी मिसाल मिलना कठिन है। आपातकाल में मिले सबक इसलिए याद रखे जाने चाहिए, क्योंकि कांग्रेस आज भी अपने नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के विरुद्ध सड़कों पर उतरना पसंद कर रही है। फर्क सिर्फ इतना है कि 1975 में उसके हाथ में डंडा था, आजकल पार्टी का झंडा है। करीब 21 महीने तक चले आपातकाल की घटनाओं को लेकर भारत में वैसी वितृष्णा नहीं दिखाई देती, जैसी यूरोप में हिटलरशाही को लेकर दिखती है। समूचा यूरोप पिछले 75 वर्षो से हिटलर की तानाशाही के विरुद्ध विजय दिवस मनाता आ रहा है। वहां हिटलर, मुसोलिनी आदि की पराजय को नुक्कड़ नाटकों, नाजीवाद पर आधारित फिल्मों और अन्य आयोजनों के जरिये आम लोगों को उस काले-भयावह दौर से परिचित कराया जाता है। ऐसा ही भारत में किया जाना चाहिए, ताकि भावी पीढ़ी भारत के इस काले अध्याय से अवगत हो।
(आपातकाल में जेल भेजे गए लेखक जदयू के महासचिव हैं)
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