सम्पादकीय

लोकतंत्र का चुनावी महाभारत: दोनों ही पक्ष अपने को पांडव और विपक्षी को कौरव सिद्ध करने पर उतारू

Gulabi
19 Dec 2021 4:51 PM GMT
लोकतंत्र का चुनावी महाभारत: दोनों ही पक्ष अपने को पांडव और विपक्षी को कौरव सिद्ध करने पर उतारू
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लोकतंत्र का चुनावी महाभारत
सूर्यकुमार पांडेय। जब भी चुनाव आने वाले होते हैं, कुछ नेताओं की जुबान कुछ अधिक ही लंबी हो जाती है। पहले के समय में इसकी नाप-तौल हो जाया करती थी कि किस नेता की जुबान डेढ़ मीटर की है और किसकी ढाई मीटर की है? अब यह जान पाना बहुत ही मुश्किल हो चला है। असली चेहरों की पहचान कठिन है। कोरोना के भय ने मुंह ही नहीं, नाक तक को मास्क से ढक रखा है। कहते हैं कि महाभारत में इसी गफलत के चलते बेचारा जयद्रथ मारा गया था। श्रीकृष्ण ने सूर्य को अपने चक्र रूपी मास्क से ढक दिया था। आज भी चुनाव में अपने विरोधी को गच्चा देने के लिए तमाम हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। 'अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा' वाली युक्ति लगानी पड़ती है। जिस अभिमन्यु को हराना होता है, उसे महारथी और बाहुबली के विरुद्ध टिकट थमा दिया जाता है।
चुनावी समर का बिगुल बज चुका है। यह दीगर बात है कि कभी किसी ने अपने क्षेत्र के प्रत्याशी को बिगुल बजाते हुए नहीं देखा होगा। आज की नई पीढ़ी ने तो बिगुल ही नहीं देखा है। यह संग्रहालय में मिलता है। जो भी चुनाव हारता है, उसको कम-से-कम पांच बरस का अज्ञातवास भोगना अनिवार्य है। इन दिनों वे इस पर गहन मंथन कर रहे हैं कि आगे किस प्रकार के मुद्दे उछाले जाएं।
ऐसे ही एक दल की बैठक में एक नेता ने कतिपय नए और भ्रामक नारे गढ़ने का काम एक खास दस्ते को सौंपने की जानकारी दी। दूसरे ने बताया कि किन-किन इलाकों के बाहुबली बराबर उसके संपर्क में हैं और वे सब इस समर की हवा को कैसे उनके पक्ष में करेंगे। एक अन्य असहनीय और विवादमूलक मुद्दों के अग्निबाण छोड़ने की सलाह दे रहा है। पार्टी प्रमुख को उनकी यह समर-नीति पसंद आ रही है। वैसे भी इस समय प्रत्येक प्रत्याशी की सत्यवादी की तुलना में सत्तावादी छवि का होना ही श्रेयस्कर है।
यह लोकतंत्र का चुनावी महाभारत है। यहां कौरव और पांडव दोनों एक ही नाव पर सवार हैं। उनकी दशा चक्रव्यूह में फंसे हुए अभिमन्यु जैसी ही हो रही है। इस महासमर में सप्तम द्वार को भेदने की जुगत लगाई जा रही है। दुर्योधन के बोल बिगड़े हुए हैं। दु:शासन द्रौपदी का चीरहरण करने में तनिक संकोच नहीं कर रहा है। चाचा, ताऊ, पिता, मामा, बुआ, फूफा, दीदी, बहन सभी आमने-सामने हैं। अजरुन भ्रमित हैं। सहदेव की सहनशक्ति जवाब दे रही है। शकुनि की बिछाई बिसात के आगे युधिष्ठिर की चालें बेमानी नजर आ रही हैं। श्रीकृष्ण मौन हैं।
वैसे तो इसे आप सरसरी तौर पर एक धर्मयुद्ध भी कह सकते हैं, क्योंकि इसके लिए भी एक आचार संहिता लागू होती है, किंतु यह भी देखा जा रहा है कि कई योद्धा अधर्म युद्ध पर भी आमादा हैं। समूचे समर क्षेत्र में धर्म और जातियों के ध्रुवीकरण का फ्लू संक्रामक रूप से पसर चुका है। इस रोग के निराकरण का यक्षप्रश्न अनुत्तरित है। इस महाभारत में बहुत सारे भीष्म पितामह भी हैं, किंतु दलगत हितों के चलते उन्होंने अपने मुंह पर टेप चिपका लिए हैं।
सभी वीर योद्धा प्रत्याशी, जिन्हें चुनावी महाभारत का अनुभव और दक्षता, दोनों ही प्राप्त हैं, अपनी वाकपटुता और वादों के अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर चुनाव के मैदान में जिधर से भी मौका पा रहे हैं, उधर से प्रहार कर रहे हैं। उनके समर्पित कार्यकर्ता भी अपने-अपने महारथियों के पदचिन्हों पर चल रहे हैं। दोनों ही पक्ष अपने को पांडव और विपक्षी को कौरव सिद्ध करने पर उतारू हैं। चुनाव की हांडी में प्रचार की मथानी चल रही है। इसके चलते हस्तिनापुर के वोटर का दिमाग दही हो गया है। वह तय नहीं कर पा रहा है कि किस पक्ष को विजय का मक्खन खिलाए और किस को अंजुरी भर छाछ देकर टरका दे।

मेरे मित्र चिड़चिड़े लाल को भरोसा है कि उनका गठबंधन इस बार परिवर्तन लाकर मानेगा। मैंने उससे कहा, 'प्यारे भाई, तुम कितनी भी उछलकूद कर लो, यह चुनावी महाभारत है इसलिए इसमें विजय उसी की होगी, जो धर्म के साथ रहेगा। अधर्मधारी की पराजय एक युगसत्य है, जिसके दृष्टांत सतयुग, त्रेता युग और द्वापर युग में मिलते हैं। फिर इस कलियुग ने ऐसा कौन-सा घनघोर पाप किया है? इस युग में भी धर्मधारकों की विजय सुनिश्चित है।'
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