सम्पादकीय

बढ़ती आबादी का चुनावी मुद्दा : गरीबी, शिक्षा और जनसंख्या नियंत्रण

Neha Dani
20 Nov 2021 1:49 AM GMT
बढ़ती आबादी का चुनावी मुद्दा : गरीबी, शिक्षा और जनसंख्या नियंत्रण
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सुधार का कार्य सूझ-बूझ और सहमतियों से होना चाहिए।

जनसंख्या नियंत्रण और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देश की सर्वांगीण उन्नति के आधार हैं। इस वर्ष के आरंभ में उत्तर प्रदेश जनसंख्या नियंत्रण/स्थिरीकरण विधेयक, 2021 का आगाज बड़े जोरदार तरीके से हुआ था। तब उम्मीद की गई थी कि 2022 के विधानसभा चुनाव में सार्वजनिक शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट और बढ़ती आबादी चुनावी मुद्दे बनेंगे।

जनसंख्या आधिक्य का संबंध अशिक्षा और गरीबी से अधिक है। जिन दलितों एवं मुस्लिम परिवारों में अधिक बच्चे पाए जाते हैं, उनमें अशिक्षा और गरीबी भी अधिक पाई जाती है। इसके पीछे कोई धर्मगत या जातिगत कारण ढूंढना तर्कसंगत नहीं है। चीन के बाद हम सर्वाधिक आबादी वाले देश हैं। संसाधनों पर आबादी का घनत्व भारी पड़ता जा रहा है। राज्य अस्सी फीसदी जनता को गुणवत्तापूर्ण जीवन मुहैया कराने में असमर्थ है।
ऊपर से उत्पादन का असमान वितरण, आर्थिक विषमता और संसाधनों के निजी क्षेत्रों में सिमटने से सामान्य जन बुनियादी सुविधाओं से वंचित होते जा रहे हैं। पिछले महीने जारी वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एम.पी.आई) तथा ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास पहल की रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में छह गरीबों में से पांच अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों में से हैं। अधिसंख्य गरीब आबादी उत्तर प्रदेश में है।
'सीमित परिवार' की योजना सर्वप्रथम प्रस्तावित करने वाले डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने 1928 में ही 'कुटुंब नियोजन' की बात कही थी। उन्होंने बतौर श्रम मंत्री सुरक्षित प्रसव, मातृत्व अवकाश और शिशु को 'पालना गृह' उपलब्ध कराने का प्रस्ताव पेश किया था। शिक्षित माताएं बिना किसी दंडात्मक चेतावनी के अशिक्षित माताओं की भांति अधिक बच्चे नहीं रखती हैं।
इसलिए 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति' में जनसंख्या और शिक्षा के प्रश्नों को दलित और आदिवासियों की जीवन स्थितियों को ध्यान में रखकर नीति निर्धारण पर अमल करने की आवश्यकता है। भारत में लोग विभाजित हितों के कारण संख्या बल को समुदाय बल मानते हैं। धार्मिक समुदायों के प्रतिनिधि तथा कुछ जनप्रतिनिधि भी नागरिक नीति के खिलाफ जनसंख्या वृद्धि पर सांप्रदायिक दृष्टि से बात करते हैं।
जिन देशों की आबादी बेतहाशा बढ़ रही है, उनमें भारत सहित बांग्लादेश, पाकिस्तान, कुवैत, लेबनान इत्यादि प्रमुख हैं। कम आबादी वाले देशों की तुलना में इन देशों में गुणकारी शिक्षा, वैज्ञानिक सोच और जीविका के संसाधन कम होते जा रहे हैं। जिस अनुपात में उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में सरकारी शिक्षा का स्तर गिरा है, उसी अनुपात में वहां जनसंख्या का घनत्व बढ़ा है।
शिक्षा के माध्यम से ही देशों की आबादी संतुलन की क्षमता और समझ बढ़ती है। शिक्षा एक ऐसा साधन है, जिसके दम पर बिना दंडात्मक कार्रवाई किए भी आबादी में कमी और विकास के साधनों में वृद्धि की जा सकती है। जीवन के प्रति वैज्ञानिक नजरिया, चिकित्सा विज्ञान का सामान्य ज्ञान सभी नागरिकों को कराया जाना चाहिए। पर यह उन समुदायों में नहीं हो सकता, जहां पूर्ण साक्षरता तक नहीं है।
विगत दो दशकों से ज्ञानाधारित सार्वजनिक राजकीय शिक्षा का ध्वस्तीकरण कर मुनाफा केंद्रित व्यावसायिक शिक्षा को प्रोत्साहन दिया गया। इससे जन सामान्य के लिए शिक्षा का संकट गहरा हो गया। बढ़ती आबादी से उत्पन्न संकटों को ध्यान में रखा जाए, तो सीमित परिवारों का कानून बुरा नहीं है। पर इसे लागू करने के तरीके आक्रामक ज्यादा लगते हैं।
जरूरत स्कूल, कॉलेज के पाठ्य विषयों की तरह बाकायदा परिवार कल्याण की शिक्षा प्रदान करने की है। जनसंख्या वृद्धि में अशिक्षा और अंधविश्वासों की भी बड़ी भूमिका है। लिंगभेद भी आबादी बढ़ाने वाला कारक है। कुछ धार्मिक समुदायों में नसबंदी को धर्म विरुद्ध माना जाता है, लेकिन सुशिक्षित लोग, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, वैज्ञानिक चेतना से लैस होते हैं और जनसंख्या नियंत्रण को जरूरी समझते हैं।
बहुतों के पास एक ही बच्चा है, तब भी क्या सरकार अपने स्तर पर उसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व रोजगार की गांरटी दे पाती है? केवल कानूनी कठोरता से नियंत्रण असंतोष पैदा करता है। सुधार का कार्य सूझ-बूझ और सहमतियों से होना चाहिए।
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