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उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने आखिरकार देवस्थानम बोर्ड को भंग करने का फैसला कर लिया। खुद मुख्यमंत्री धामी ने ट्विटर पर विडियो के रूप में जारी
उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने आखिरकार देवस्थानम बोर्ड को भंग करने का फैसला कर लिया। खुद मुख्यमंत्री धामी ने ट्विटर पर विडियो के रूप में जारी एक बयान में बताया कि तीर्थ पुरोहितों, हक-हकूकधारियों और जनप्रतिनिधियों की ओर से मिल रहे फीडबैक और इस सिलसिले में गठित उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट के आधार पर उनकी सरकार ने चार धाम देवस्थानम मैनेजमेंट बोर्ड एक्ट को वापस लेने का निर्णय किया है। उत्तराखंड के लिहाज से यह एक बड़ा फैसला है। इसका काफी समय से विरोध हो रहा था। खास तौर पर राज्य का पुरोहित समुदाय इस कानून और इसके जरिए स्थापित मंदिर प्रबंधन व्यवस्था का घोर विरोधी था। इन लोगों को समझाने-बुझाने की काफी कोशिश हुई, लेकिन वे कुछ सुनने को तैयार नहीं थे।
अब अगर सरकार अपने कदम पीछे खींचने को तैयार हुई है तो इसकी एक व्याख्या तो यही है कि सरकार जनभावनाओं के आगे झुकी है। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई सरकार जनभावनाओं का सम्मान करती हुई दिखे तो यह अच्छी बात ही मानी जानी चाहिए। दिक्कत सिर्फ यह है कि जनभावनाओं का सम्मान करने का यह ख्याल उत्तराखंड सरकार के मन में तब आया, जब चुनाव सिर पर आ चुके हैं।
गौर करने की बात है कि न तो देवस्थानम बोर्ड गठित करने का यह फैसला हाल का है और न ही इसका विरोध नया है। दिसंबर 2019 में विधानसभा में इस बिल को पेश किए जाने पर सदन के अंदर ही नहीं, बाहर भी इसका कड़ा विरोध हुआ था। उसके बाद भी विरोध जारी रहा। लेकिन सरकार अपने फैसले पर अडिग रही क्योंकि उसका कहना था कि अन्य राज्यों में की गई समानांतर व्यवस्थाओं का अध्ययन करने के बाद और राज्य के तीर्थस्थलों के समन्वित विकास के मद्देनजर यह कदम उठाया गया है। इससे न केवल तीर्थस्थलों पर दिखने वाली अव्यवस्था की स्थिति समाप्त होगी बल्कि यहां आने वाले तीर्थयात्रियों की सुविधाओं का ख्याल रखने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास का सुनियोजित और समन्वित प्रयास भी संभव होगा।
ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि जब इतना सोच-समझकर और राज्य के व्यापक हित में यह कदम उठाया गया था तो फिर अचानक ऐसी क्या बात हो गई कि सरकार अपने इस सुविचारित कदम को वापस लेने को मजबूर हो गई? भले इस बीच राज्य ने तीन मुख्यमंत्री देख लिए हों, लेकिन सरकार तो बीजेपी की ही है। धामी सरकार ने अभी तक ऐसा कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है, जिससे पता चले कि सरकार के संज्ञान में इस बीच कोई नया तथ्य आया जिससे वस्तुस्थिति बदल गई। ऐसे में यही संभावना सबसे मजबूत दिखती है कि बीजेपी सरकार ने चुनावी नफा-नुकसान के मद्देनजर यह फैसला किया है। अगर ऐसा है तो यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है। जनहित में उठाए गए कदमों की चुनावी हितों पर बलि देने की यह परंपरा किसी का भला नहीं करेगी।
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