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अन्यथा उसका कोई नामलेवा भी नहीं रहेगा।
देश के पांच राज्यों का जनादेश कई बातों को स्पष्ट करता है। सबसे पहली बात यह कि मतदाता अब हर चुनाव की प्रक्रिया को महत्वपूर्ण समझता है और देश का अति निर्धन व्यक्ति भी परस्पर बराबरी की भावना से उन मुद्दों पर चिंतन करता है, जिसमें उसका अपना हित तो हो ही, राष्ट्र की राजनीतिक संप्रभुता भी निहित हो। भाजपा ने सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में फिर से जीत हासिल की है। पंजाब में भाजपा के राजनीतिक प्रतिरोधी, किंतु एक नया और छोटा दल आम आदमी पार्टी ने अपना परचम लहराया है।
लगभग पंद्रह करोड़ मतदाता और 403 विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में अनेक जातीय समीकरण हैं। नब्बे के दशक के बाद कोई भी सरकार यहां दोबारा चुनाव जीतकर नहीं आई है। ऐसे में एक त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा का इतना अच्छा प्रदर्शन चौंकाने वाली बात है। जाहिर है, मतदाताओं ने शासन के मोदी मॉडल और योगी के कानून-व्यवस्था पर बल दिए जाने के एजेंडा को तवज्जो दी है। चुनाव से पहले अखिलेश यादव भाजपा गठबंधन में शामिल कई छोटे दलों को तोड़कर अपने खेमे में ले गए। ये दल और उनके नेता अनेक अति पिछड़ी जातियों की अगुवाई करने वालों में से हैं।
इसलिए एक तरह से यह तय माना जा रहा था कि पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन, पूर्वांचल में अनूठा गठबंधन और मध्य हिस्से में अखिलेश के अपने दमखम के बूते भाजपा को सपा से कड़ी चुनौती मिलेगी। पर लगता है कि मतदाताओं ने मोदी पर अपना विश्वास, विशेष रूप से विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों ने तथा योगी के कानून-व्यवस्था बनाए रखने के दावे पर भरोसा जताया है। भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे पर अन्य दलों ने भी कोई विशेष प्रतिरोध नहीं जताया।
हालांकि सपा ने पिछली बार की तुलना अपनी सीटें लगभग तिगुनी की हैं। महंगाई, बेरोजगारी और पेंशन योजना के मुद्दों को उसने पुरजोर तरीके उठाया। आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में जहां एक मजबूत सरकार होगी, वहीं एक मजबूत विपक्ष भी होगा। सबसे हैरान करने वाले नतीजे तो उत्तराखंड के रहे, जहां भाजपा को पांच साल के भीतर ही तीन मुख्यमंत्री लाने पड़े। ऐसा लगता था कि कांग्रेस के हरीश रावत वहां के सबसे बड़े नेता बनकर उभरेंगे। लेकिन भाजपा के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और कांग्रेस के हरीश रावत, दोनों चुनाव हार गए।
कांग्रेस राज्य में भाजपा की कमजोर स्थिति का लाभ नहीं उठा सकी। जाहिर है, जनता ने यहां भाजपा को चुना है, न कि किसी कद्दावर और दिग्गज नेताओं को। भाजपा और उसके एजेंडे पर मतदाताओं का भरोसा कायम है। उत्तराखंड का नतीजा उदाहरण है कि कांग्रेस कैसे आपसी कलह और काहिली के कारण जीतने वाला चुनाव भी हार सकती है। उत्तराखंड में पूरे चुनाव में यह स्पष्ट ही नहीं हुआ कि आलाकमान का हरीश रावत पर भरोसा था कि नहीं। पार्टी के बड़े नेता प्रचार में कहीं नहीं दिखे।
और पार्टी की स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में एक नायाब राजनीतिक कैंपेन में व्यस्त रहीं। यदि पंजाब, उत्तराखंड और गोवा-तीनों राज्यों को देखें, तो कांग्रेस के लिए यही कहा जा सकता है कि माया मिली न राम। हंगामा बहुत, किंतु राजनीतिक प्रदर्शन बिल्कुल शून्य। जाहिर है, कांग्रेस को अपनी खोई हुई जमीन पाने के लिए अभी काफी मेहनत करने की जरूरत है, अन्यथा उसका कोई नामलेवा भी नहीं रहेगा।
सोर्स: अमर उजाला
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