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चुनाव से हाथ मिलाते वादे और वादों के खेत में चुनाव का हल चलाते समीकरण, इस वक्त हिमाचल को एक नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर रहे हैं
सोर्स- divyahimachal
चुनाव से हाथ मिलाते वादे और वादों के खेत में चुनाव का हल चलाते समीकरण, इस वक्त हिमाचल को एक नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर रहे हैं। कहीं बल्क ड्रग पार्क की चुनावी दवाई तैयार हो रही है, तो कहीं सुरमा डाल कर घोषणाओं के मंसूबे दनदना रहे हैं। ऐसे में क्या किसी नए कालेज का खुलना हमें हैरत में डालता है या हम अपनी शिक्षा की लाज बचाने के लिए, उस ठेकेदारी को देख लेंगे जो एक नए भवन में कैद हो जाएगी। बल्हसीणा में कालेज कितना उपयोगी होगा यह केवल वहां के विधायक जे आर कटवाल जान सकते हैं, लेकिन दीवारों पर जब उनका नाम लिखा जाएगा, तो वह अपने आसपास की राजनीति पर भारी पड़ेंगे। हिमाचल को आज तक मालूम नहीं हो सका कि उसे कितने स्कूल, कालेज या विश्वविद्यालय चाहिए, लेकिन विधायकों को मालूम है कि वे सत्ता के प्रभाव से कुछ भी करवा सकते हैं। हम यह तर्क नहीं दे रहे या यह हमारी मंशा नहीं कि किसी कालेज के खुलने पर ऐतराज किया जाए, लेकिन चुनावी वर्ष की संध्या में जो होता है, उसकी मंशा पर क्या कहें। हर काम की चौपाल क्यों चुनाव ही हो जाती है और लोग भी यह मान चुके हैं कि बड़ी घोषणाओं के लिए राजनीति का यही वक्त होता है। मसलन फिर कहीं परिदृश्य में केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी आएंगे, तो मालूम हो जाएगा कि परियोजनाओं की लंबाई में कोई न कोई चुनाव है।
अब पठानकोट-मंडी फोरलेन को 815 करोड़ का तोहफा मिल रहा है या इसी लागत में कांगड़ा की जनता को चुनाव का रास्ता मिल जाएगा। जो भी हो चुनाव निश्चित रूप से एक गंतव्य है और जहां तक पहुंचने की लागत में विकास को बेपर्दा होना होता है। यह केवल विकास ही नहीं चुनावी मसौदे में सरकार के खिलाफ एक ऐसा विपक्ष खड़ा किया जाता है और जो केवल विरोधी राजनीतिक पक्ष नहीं, बल्कि हर विरोध का साझा पक्ष है। क्या इस राजनीतिक साझेदारी में इंकलाब लाया जाता है या जनता ही चुनाव को केवल 'बदल डालो' समझ वोट डालो के भ्रम में अपनी कृतज्ञता भूल जाती है। खास तौर पर हिमाचल में कमोबेश हर चुनाव को कर्मचारियों की कृतघ्नता की निगाह से ही देखा जाता है। शायद किसी भी चुनाव का सबसे बड़ा पेंच भी यही है कि कर्मचारी मुद्दों की 'मसल पावर' अंततः शांत क्यों नहीं होती। क्या हिमाचल में जनता और कर्मचारी अलग-अलग व्यवहार से चुनाव को देखते हैं या यहां ये चुनावों में सभी केवल खुद को ही देखते हैं। ऐसे में चुनाव को क्या मनमोहक बनाया जा सकता है या यह हमेशा सौदेबाजी पर उतर आता है।
यानी चुनावी समीकरणों की आहट में आह सी निकलती कोशिश में सरकारें अकसर बंजारा भूमिका में बांटने निकल जाती हैं ताकि छोटी मोटी फाइल से भी बड़ी बात निकले। स्कूल से कालेज, कालेज से विश्वविद्यालय निकले। आश्चर्य यह कि विधायक या मंत्री की योग्यता उसके विधानसभा क्षेत्र में इस लिहाज देखी जाती है कि कितने नए कार्यालय खोले या कहां-कहां ठेकेदारी प्रथा में इमारतें जमीन खोद रही हैं। किसी भी विधानसभा क्षेत्र के अस्पताल मेें डाक्टर, कालेज में प्राध्यापक या दफ्तर में अफसर पूरे के पूरे मिल जाएं, तो समझो कि विधायक ही सत्ता पक्ष है, वरना हारे हुए कई बार कहीं अधिक प्रभावशाली होते हैं। हर बार कुछ विधानसभा क्षेत्र वीआईपी हो जाते हैं, तो प्रदेश का बजट चुनिंदा मेहरबानियों में इतना असंतुलित हो जाता है कि 'क्षेत्रवाद' के दाने चुनाव नहीं पचा पाता। ऐसे में हर चुनाव एक खुशफहमी है, हर परिवर्तन एक खुशफहमी है, क्योंकि हिमाचल में समस्त सरकारों और राजनीति का ढर्रा एक सरीखा ही रहा। क्या इस बार चुनाव अपना चरित्र बदल कर किसी एक दल पर अधिक भरोसा करेगा या चुनाव आते-आते इतना नकारात्मक पक्ष उभर आएगा, जो अपने सामने केवल एक नया विकल्प देखेगा। सरकार की ओर से सकारात्मक आशाएं और अपने सामने के नकारात्मक पक्ष यानी रूठे वर्गों, निरुत्साहित युवाओं और विधायकों के प्रति खिन्नता को कितना परास्त करेंगी, यह मुआयना सरकार की अंतिम घोषणा तक होता रहेगा।
Rani Sahu
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