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पश्चिम बंगाल में बड़ी जीत हासिल करने के बाद तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है।
पश्चिम बंगाल में बड़ी जीत हासिल करने के बाद तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है। जाहिर है, अब अगले पूरे कार्यकाल के लिए राज्य की कमान एक बार फिर उनके हाथ में है। कार्यभार संभालने के साथ ही उनके सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती यह है कि नतीजों की घोषणा के बाद से राज्य में जिस पैमाने की हिंसक घटनाएं सामने आ रही हैं, उससे वे कैसे निपटती हैं।
हालांकि शासन के उनके तौर-तरीकों के रिकॉर्ड को देखते हुए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे स्थानीय जटिलताओं को समझ कर जल्दी ही हालात पर काबू पा लेंगी, लेकिन यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि आखिर चुनाव में भारी जीत के बाद तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर हिंसा के जैसे आरोप लगे हैं, उस पर उनका क्या रुख होगा! गौरतलब है कि पिछले रविवार को विधानसभा चुनाव के परिणाम में तृणमूल कांग्रेस की भारी जीत के बाद से राज्य में लगातार हिंसक वारदात जारी हैं और करीब डेढ़ दर्जन लोगों के मारे जाने की खबरें आ चुकी हैं। इसमें एक ओर भाजपा अपने ज्यादा कार्यकर्ताओं की जान जाने की शिकायत कर रही है तो तृणमूल कांग्रेस भी अपने लोगों की हत्या का आरोप लगा रही है।
सवाल है कि नतीजों को सहजता से स्वीकार कर सभी पार्टियां अब आगे राज्य की बेहतरी के लिए कुछ करने के बजाय अपने कार्यकर्ताओं को हिंसक गतिविधियों शामिल होने से क्यों नहीं रोक पा रही हैं! हालत यह है कि हिंसा के पैमाने को देखते हुए जहां राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने तक की मांग उठ रही है, वहीं तृणमूल कांग्रेस ने हिंसा फैलाने का आरोप भाजपा पर लगाया है। इस बीच शपथ लेने के बाद ममता बनर्जी ने हालात से निपटने की बात कही है, लेकिन साथ यह भी शिकायत की कि सोमवार तक राज्य का समूचा प्रशासन चुनाव आयोग के हाथ में था।
यह एक तरह से हिंसक गतिविधियों को शुरुआत में नहीं रोक पाने के लिए चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करने जैसा है। क्या ऐसे आरोप-प्रत्यारोप से मौजूदा हिंसा का हल निकाला जा सकता है? हिंसा की कुछ घटनाएं चुनावी प्रतिद्वंद्विता और स्थानीय लोगों के बीच आपसी टकराव का नतीजा हो सकती हैं। लेकिन फिलहाल जो हालात दिख रहे हैं, उसमें दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं को अपने कार्यकर्ताओं को नियंत्रित करने का उपाय करना चाहिए, ताकि हिंसा थम सके।
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की सक्रियता और उनकी गतिविधियां आमतौर पर वरिष्ठ नेताओं के रुख पर निर्भर होती हैं। अगर इससे इतर कभी हालात पैदा होते हैं तो उसे भड़काने या फिर काबू करने के मामले में शीर्ष स्तर के नेताओं की बड़ी भूमिका होती है। यों पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। सत्ता में आने से पहले ममता बनर्जी वाम मोर्चे पर हिंसा का सहारा लेकर राज करने का आरोप लगाती थीं।
लेकिन तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद इसी तरह के आरोप उस पर लगने लगे। कहा जा सकता है कि जब भी जिस पार्टी का किसी इलाके में वर्चस्व रहा, उसने हिंसा और ताकत के बल पर स्थानीय लोगों और उनकी आवाज को दबाने की कोशिश की। लेकिन बेमानी मसलों पर हिंसा का सिलसिला जारी रहते क्या लोकतंत्र को बचाया जा सकता है? जरूरत इस बात की है कि सत्ता के गणित से बेलगाम होने वाले राजनीतिक दल एक लोकतांत्रिक माहौल में राज्य के हित के लिए मिल कर काम करें। मौजूदा महामारी के दौर में पहले इस संकट से निपटना सबकी प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए।
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