सम्पादकीय

पांच राज्यों का चुनाव बड़ी परीक्षा

Gulabi
9 March 2021 4:37 PM GMT
पांच राज्यों का चुनाव बड़ी परीक्षा
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वैसे तो भारतीय जनता पार्टी इन दिनों हर चुनाव करो या मरो के अंदाज में लड़ती है

वैसे तो भारतीय जनता पार्टी इन दिनों हर चुनाव करो या मरो के अंदाज में लड़ती है। जहां उसका कुछ भी दांव पर नहीं होता है वहां भी वह ऐसे चुनाव लड़ती है, जैसे उसे सरकार बनानी है। केरल में भाजपा को पता है कि उसका कुछ भी दांव पर नहीं है, पिछली बार के चुनाव में वह सिर्फ एक सीट जीत पाई थी और तमाम प्रयास के बावजूद लोकसभा चुनाव में भी कुछ खास वोट नहीं हासिल कर पाई थी। फिर भी इस बार पार्टी ने पूरा दम लगाया है। हर तरह के उपाय किए जा रहे हैं। 88 साल के ई श्रीधरन को पार्टी में शामिल कराने से लेकर उन्हें मुख्यमंत्री दावेदार बनाने की चर्चा तक पार्टी ने वह सब कुछ किया, जिससे चुनाव से पहले वह मुख्यधारा में लड़ती दिखे। अमित शाह ने 51 फीसदी हिंदू वोट साधने के लिए दो दर्जन से ज्यादा मठों के मठाधीशों के साथ मुलाकात की।


भाजपा पिछले करीब सात साल से इसी तरह के प्रयास पश्चिम बंगाल में कर रही थी और उसका नतीजा सबके सामने है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के कमान संभालने के बाद पहले प्रयास में भाजपा को बंगाल लोकसभा में दो और विधानसभा में तीन सीटें मिली थीं। लेकिन दूसरे प्रयास में भाजपा ने लोकसभा की 18 सीटें जीतीं और इस बार विधानसभा में उसका तृणमूल कांग्रेस के साथ आमने-सामने का मुकाबला है। तभी बंगाल के चुनाव में पूरे देश की दिलचस्पी है। अगर भाजपा वहां जीतती है तो यह उसकी रणनीति और उसके तय किए एजेंडे की जीत होगी और तब उन राज्यों में भाजपा की चुनौती को गंभीरता से लिया जाने लगेगा, जहां वह अभी हाशिए की पार्टी है। दक्षिण के राज्यों- केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के अलावा पूर्वी भारत का ओड़िशा ही ऐसे राज्य हैं, जहां भाजपा अभी अपना असर नहीं छोड़ पाई है। इन राज्यों में भाजपा को गंभीरता से लिया जाए, इसके लिए जरूरी है कि पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा अच्छा प्रदर्शन करे। इन पांच राज्यों के नतीजों से ही पता चलेगा कि भाजपा के विस्तार की प्रक्रिया चलती रहेगी या उसका सिकुड़ना शुरू होगा।


अगर पुराने पैमाने पर देखें तो भाजपा अपने चरम पर पहुंच गई है। उसके पास और फैलने के लिए जगह नहीं है। लेकिन यह भी हकीकत है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए पुराने पैमानों का कोई मतलब नहीं है। दो बार लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल होने के बाद और देश के ज्यादातर राज्यों में सरकार बनाने के बावजूद ये दोनों नेता ऐसी मेहनत कर रहे हैं, जैसे पहला चुनाव लड़ रहे हों। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन दोनों का सहज स्वभाव इसी तरह से टकराव बना कर और हर चुनाव को बड़े इवेंट में बदल कर लड़ने का है। लेकिन दूसरा कारण यह है कि इनको पता है कि ये पांचों चुनाव उनके लिए बड़ी परीक्षा की तरह हैं।

पांच राज्यों के चुनाव भाजपा के लिए क्यों बड़ी परीक्षा की तरह हैं, इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद राज्यों के चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन लगातार खराब हुआ है। बिहार के एक अपवाद को छोड़ दें तो हर जगह भाजपा को नुकसान हुआ। दूसरा, कारण यह है कि इन चुनावों से भाजपा के लिए अखिल भारतीय स्वीकार्यता के नए दरवाजे खुलने हैं। तीसरा कारण यह है कि अगले साल उत्तर प्रदेश सहित सात राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, उनसे पहले यह चुनाव एक तरह के पूर्वाभास की तरह है और चौथा कारण यह है कि भाजपा की दो बड़ी और महत्वाकांक्षी नीतियों- केंद्रीय कृषि कानून और नागरिकता संशोधन कानून की परीक्षा इस चुनाव में होनी है।

चुनाव को करो या मरो के अंदाज में लड़ने का पहला कारण लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहराने का दबाव है। मई 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से पांच राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली और बिहार में विधानसभा के चुनाव हुए और एक बिहार के अपवाद को छोड़ दें तो चार राज्यों में भाजपा को नुकसान हुआ। उसे महाराष्ट्र और झारखंड में सत्ता गंवानी पड़ी तो हरियाणा में भी उसकी सीटें कम हो गईं और बड़ी मुश्किल से दुष्यंत चौटाला के समर्थन से उसकी सरकार बनी है। दिल्ली की 70 सीटों में से भाजपा मुश्किल से आठ सीट जीत पाई। बिहार में जरूर भाजपा की सीटें बढ़ीं पर उसका श्रेय नीतीश कुमार को जाता है।

दूसरा कारण यह है कि भाजपा को लग रहा है कि इन चुनावों में जीत से उसके लिए अखिल भारतीय स्वीकार्यता का दरवाजा खुलेगा। पश्चिम बंगाल भाजपा के लिए हमेशा मुश्किल राज्य रहा है। नरेंद्र मोदी के दिग्विजय अभियान में भी बंगाल भाजपा की पहुंच से दूर रहा है। अगर भाजपा बंगाल में जीतती है तो दक्षिण भारत के राज्यों और ओड़िशा में भी भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा। उनमें यह भरोसा आएगा कि वे जीत सकते हैं। भाजपा यह मैसेज देने में कामयाब होगी कि बंगाल के लोगों ने राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस, तीन दशक तक राज करने वाली वामपंथी पार्टियों और 10 साल तक राज करने वाली प्रदेश की इकलौती क्षेत्रीय पार्टी को खारिज करके भाजपा को चुना है।

अगले साल सात राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य भी शामिल है। साल के शुरू में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा के चुनाव हैं और साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हैं। पंजाब को छोड़ कर बाकी सभी छह राज्यों में भाजपा की सरकार है। भाजपा नेताओं को पता है कि लोकसभा चुनाव के बाद शुरू हुआ गिरावट का दौरा जारी रहता है और भाजपा पश्चिम बंगाल और असम में अच्छा प्रदर्शन नहीं करती है तो अगले साल होने वाले चुनावों पर बड़ा असर होगा। भाजपा के अपने कार्यकर्ताओं को मनोबल गिरेगा और विपक्षी पार्टियों का आत्मविश्वास लौटेगा। यह मैसेज बनेगा कि भाजपा को लगातार हराया जा सकता है।

भाजपा के जी-जान लगाने का एक कारण यह है कि उसकी दो महत्वाकांक्षी नीतियों- कृषि कानूनों और संशोधित नागरिकता कानून की परीक्षा होनी है। वैसे इन दोनों नीतियों को लागू करने के बाद कई चुनाव हो चुके हैं। लेकिन परीक्षा इस बार होनी है क्योंकि दिल्ली की सीमा पर किसान आंदोलन शुरू होने के बाद यह पहला चुनाव है। दिल्ली की सीमा पर एक सौ दिन से किसान आंदोलन कर रहे हैं। ममता बनर्जी ने इस आंदोलन का समर्थन किया है और किसानों ने ऐलान किया है कि वे चुनाव वाले राज्यों में जाएंगे और भाजपा को हराने की अपील करेंगे। किसानों ने कहा है कि वे किसी पार्टी के पक्ष में प्रचार नहीं करेंगे, बल्कि मतदाताओं से कहेंगे कि जो भी भाजपा को हरा रहा हो उसे वोट करें। ऐसे में अगर भाजपा नहीं जीत पाती है तो यह कृषि कानूनों और किसान आंदोलन पर उसकी हार होगी।

ऐसे ही असम का चुनाव इस बात की परीक्षा है कि नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए को नागरिक कैसे लेते हैं। यह कानून सबसे ज्यादा असर असम और बंगाल में ही डालने वाला है। सीएए का सबसे ज्यादा विरोध असम में हुआ। वहां के स्थानीय नागरिकों को लगता है कि इस कानून से अहोम संस्कृति और असमिया भाषा को नुकसान होगा। बांग्ला बोलने वाले लोगों की राज्य में बहुलता हो जाएगी। तभी चुनाव से ऐन पहले असम जातीय परिषद और रायजोर दल के नाम से दो पार्टियां सामने आई हैं, जो सीएए विरोधी वोट की दावेदार के तौर पर देखी जा रही हैं। अगर इसके बावजूद भाजपा जीतती है और असम में अपनी सरकार बचाने में कामयाब होती है तो सीएए को लागू करने का रास्ता साफ हो जाएगा। अभी तक सरकार ने असम के चुनाव की चिंता में ही इस कानून के नियम अधिसूचित नहीं किए हैं और लंबित करके रखा है।


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