- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- चुनावी शोर-शराबा...
आदित्य चोपड़ा: उत्तर प्रदेश के अन्तिम सातवें चरण के मतदान के लिए आज चुनाव प्रचार थम जाने के बाद पांच राज्यों में हुई चुनावी प्रक्रिया अपने अन्तिम मुहाने पर पहुंच गई है और चुनावी शोर-शराबा खत्म हो गया है। अब सात मार्च को केवल उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की 54 विधानसभा सीटों पर ही मतदान होगा क्योंकि मणिपुर में भी दूसरे चरण का मतदान पांच मार्च को पूरा हो चुका है। इसके बाद मतदाताओं को 10 मार्च का इन्तजार रहेगा जिस दिन सभी राज्यों में मतगणना होगी। हालांकि किसी भी छोटे-बड़े राज्य का चुनाव वहां की जनता के लिए महत्वपूर्ण होता है परन्तु राजनीतिक दृष्टि से देखा जाये तो उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य के चुनाव विशेष महत्व रखते हैं क्योंकि इसी राज्य की मार्फत देश की सत्ता पर काबिज होने की रवायत बनी हुई है जिसकी वजह इस राज्य की सर्वाधिक लोकसभा सीटें (80) हैं। पूरे चुनावी युद्ध में इस राज्य का राजनीतिक माहौल भी बहुत दिलचस्प बना रहा और कुछ एेसे चुनावी मुद्दे भी उभरे जो इससे पहले दिखाई नहीं पड़ते थे। मसलन गांवों और गरीबों की समस्याओं का खुल कर सतह पर आना और इसके लिए कल्याणकारी राज का व्यावहारिक स्वरूप। बेशक भारतीय संविधान में सरकारों के इसी कल्याणकारी (वेफेयर स्टेट) स्वरूप को लोकतान्त्रिक पद्धति का व्यावहारिक पक्ष भी बताया गया है मगर इस बारे में चुनावों के समय विमर्श रूप में उभरने में कई दिक्कतें रही हैं। प्रत्येक सजग भारतवासी जानता है कि 1971 में स्व. इन्दिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' का विमर्श खड़ा करके जमीनी राजनीति में तूफान पैदा कर दिया था परन्तु उसके बाद 1991 के आते-आते आर्थिक नीतियों के स्तर पर भारत की दिशा इस तरह पलटी कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने सामाजिक सुविधाएं मुहैया कराने की जिम्मेदारी भी कार्पोरेट जगत के कन्धे पर लादनी शुरू कर दी। इससे भारत के वंचित व गरीब तबकों में आर्थिक मोर्चे पर एेसा खालीपन पैदा हुआ कि उनका जीवन भी बाजार से बन्धी अर्थव्यवस्था पर ही निर्भर हो गया। इसे तोड़ने का एक ही मार्ग हो सकता था कि स्वयं सरकार इस वर्ग के लोगों की मदद के लिए आगे आये जिससे उनकी तंगहाली को सहारा मिल सके। अतः एेसे अवसर भी पिछले सात सालों में कई बार आये जब मोदी सरकार पर समाजवादी नीतियां अपनाने का आरोप तक लगाया गया। पूंजीवादी व्यवस्था के बीच समाजवादी व्यावहारिक नीतियों का सत्यापन तभी हो सकता था जब इनसे समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को कुछ सहूलियत और मदद मिले। अतः नरेन्द्र मोदी सरकार ने जिस तरह पिछले कुछ वर्षों में गरीबों के लिए ईंधन गैस के सिलेंडर से लेकर स्वास्थ्य सुविधा की आयुष्मान योजना और आवास योजना चलाई उसके असर से चुनावी जमीन बार-बार थिरकती रही और विपक्ष को इन योजनाओं की काट के लिए केवल एक तरीका सूझा कि वह इनसे भी आगे बढ़कर आकर्षक घोषणाएं करें। परन्तु गरीब उत्थान योजनाओं का असर हमें हर राज्य की विशिष्ट परिस्थितियों के सन्दर्भ में देखना होगा।जहां तक उत्तर प्रदेश का सम्बन्ध है तो इसकी विशिष्ट राजनीतिक परिस्थितियों में पश्चिमी व पूर्वी इलाकों के धरातल की सच्चाई पूरी तरह अलग है। पश्चिम में जहां जातिगत व सामुदायिक गठजोड़ों के सहारे हार-जीत का फैसला होता है वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में जातिगत गठजोड़ों का सीधा रिश्ता गरीबी से रहता है। यही वजह है कि विपक्ष ने इन चुनावों में महंगाई व बेरोजगारी को अपना प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया और इसमें ग्रामीणों के समक्ष आवारा पशुओं की समस्या को भी जोड़ दिया। वास्तव में उत्तर प्रदेश के चुनावों में सबसे बड़ा मुद्दा राज्य की सामान्य कानून-व्यवस्था ही रही। यह मुद्दा राज्य की प्रमुख विपक्षी समाजवादी पार्टी की दुखती रग थी जिसे मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ बहुत चतुराई के साथ दबाते रहते थे और जवाब में सपा नेता श्री अखिलेश यादव बेरोजगारी का मुद्दा खड़ा करते रहते थे। मगर हकीकत में स्वतन्त्र भारत में महंगाई व बेरोजगारी शाश्वत मुद्दे रहे हैं जिनका सत्ता में आने से पहले विरोध में बैठने वाली भाजपा ने भी जम कर प्रयोग किया है। परन्तु ध्यान देने वाली बात यह है कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में पुरानी संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था की समाजवादी आर्थिक नीतियों को क्रियान्वयन बिना भारी जोखिम उठाये नहीं हो सकता क्योंकि इनके लिए बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में कोई गुंजाइश नहीं होती। यदि भाजपा सरकार के कार्यकाल में गरीब मूलक समाजवादी आर्थिक नीतियों का क्रियान्वयन सरकार द्वारा सफलतापूर्वक किया गया है तो लोकतन्त्र में उसका जमीन पर असर दिखाना स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। इसके साथ ही हमें यह भी ध्यान देना चाहिए कि जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश सात चरणों के मतदान की तरफ बढ़ता गया वैसे-वैसे ही कृषि सम्बन्धी वापस लिये गये तीनों कानूनों का मुद्दा राजनीतिक विमर्श से गायब होता गया और दूसरे मुद्दे प्रमुखता प्राप्त करते गये। मगर ये चुनाव इस बात का भी प्रमाण माने जायेंगे कि केवल जाति व समुदायगत गठजोड़ के सहारे सपा नेता भाजपा को चुनौती देने की क्षमता रखते हैं जबकि कांग्रेस नेता श्रीमती प्रियंका गांधी राज्य की सक्रिय विपक्षी नेता की भूमिका निभाने के बावजूद गंभीर चुनौती नहीं मानी जाती हैं। वास्तव में 10 मार्च को आने वाले परिणाम इस राजनीतिक विरोधाभास के ही सबूत माने जायेंगे।