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Written by जनसत्ता: राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप सामान्य बात है, मगर इस बार के चुनावों में जिस प्रकार केवल एक-दूसरे पर आक्षेप का बवंडर उठ रहा है, उसमें आम आदमी से जुड़े मुद्दे कहीं गायब ही हो गए हैं। हर पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र या किसी और नाम से वचनबद्धता प्रकाशित की है, मगर उनमें वही बासी वादे और जुमले हैं या फिर दूसरे दल से होड़ करते ढेर सारे खैरात के सपने। हालांकि आम मतदाता घोषणा-पत्र पढ़ कर मतदान का मानस नहीं बनाता, सार्वजनिक मंचों से जो दलों के बड़े नेता बोलते-कहते हैं, उसी का असर उन पर ज्यादा पड़ता है।
इसलिए निर्वाचन आयोग की आचार संहिता में भाषण की मर्यादा तय की गई है। मगर अब शायद ही कोई राजनीतिक दल उस मर्यादा का पालन करता देखा जाता हो। खासकर सत्ता पक्ष की तरफ से कुछ अधिक इसका उल्लंघन देखा जा रहा है। यों सत्ता पक्ष को ही सबसे अधिक सवालों का सामना करना पड़ता है, उससे मतदाता पूछता है कि पांच साल पहले जो वादे किए थे, उनमें से कितने पूरे किए। विपक्ष के सवालों के निशाने पर भी वही रहता है। इसलिए जिस सरकार का कामकाज संतोषजनक नहीं रहा होता, वह अनावश्यक बातों का अंधड़ चला कर उन तमाम सवालों को ढंकने का प्रयास करती देखी जाती है।
चुनाव सिर्फ प्रतिनिधि चुनने का अवसर नहीं होता, इसमें प्रतिनिधियों को परखने-पहचानने का भी मौका मिलता है। मतदाता तय कर पाता है कि उसकी बुनियादी समस्याओं का निदान कौन अच्छी तरह कर सकता है। मगर स्थिति यह है कि हर राजनीतिक दल और ज्यादातर उम्मीदवारों को लोग चूंकि परख चुके हैं, जिनमें से कई पाला बदल कर कभी इस तो कभी उस दल में आते-जाते रहे हैं, इसलिए उन पर बहुत यकीन नहीं रह गया है। मतदान में लोगों की अपेक्षित हिस्सेदारी न हो पाने की भी एक बड़ी वजह यही है कि बहुत सारे लोगों को किसी भी दल का प्रत्याशी पसंद नहीं आता।
इसलिए हर दल और उसका प्रत्याशी उत्तेजना पैदा करके लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने का प्रयास करता देखा जाता है। उसमें एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप ही सबसे कारगर साधन नजर आता है। आरोप-प्रत्यारोप की इस अकुलाहट में कई राजनेता भाषा की गरिमा और सामान्य नागरिक बोध तक भुलाए दे रहे हैं। विचित्र है कि इस वक्त देश के सामने सामान्य नागरिकों से जुड़ी अनेक गंभीर समस्याएं हैं, मगर कोई भी पार्टी उनके समाधान की व्यावहारिक रूपरेखा नहीं पेश कर पा रही है। बस, खोखले वादे किए जा रहे हैं, जिनमें हर कोई दूसरे से आगे निकल कर खैरात बांटने की बातें दोहरा रहा है। मगर किसी के पास इस बात का जवाब नहीं कि उसके लिए पैसे कहां से आएंगे।
यह जनतंत्र के लिए गंभीर चिंता का विषय है कि जिन पार्टियों को लोग व्यवस्था चलाने के लिए चुन कर भेजते हैं, उनके पास नागरिकों की असल समस्याओं के समाधान का कोई खाका ही नहीं है। वे जाति, धर्म, इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ कर और एक-दूसरे पर व्यक्तिगत भद्दी टिप्पणियां करके लोगों को उत्तेजित करने और उन्हें अपने पाले में खींचने का प्रयास करती देखी जा रही हैं। जाहिर है, इस तरह के निरर्थक मसले उठा कर जो भी पार्टी सरकार में आएगी, वह असल मुद्दों पर कभी गंभीरता से काम करने का प्रयास नहीं करेगी। कितना अजीब है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, खेती-किसानी आदि से जुड़ी बुनियादी समस्याओं पर कोई व्यावहारिक बात नहीं कर रहा।