सम्पादकीय

चुनाव उत्सव

Rani Sahu
30 May 2022 7:08 PM GMT
चुनाव उत्सव
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देश में आजकल उत्सव का माहौल है

देश में आजकल उत्सव का माहौल है। सारा देश उत्सवमय है। यह उत्सव न आज ख़तम होगा न कल। यह उत्सव कभी ख़तम होने वाला नहीं। यह उत्सव कभी ख़तम हो भी नहीं सकता। वजह, यह देश घोर लोकतांत्रिक है और लोकतंत्र की रक्षा करना आम आदमी का परम कर्त्तव्य है। ऐसा संविधान निर्माता कहते हैं। यह बात दीगर है कि जहां घोर है, वहां अघोर भी होगा। लोक है तो अलोक भी होगा। वैसे भी चुनाव के समय वोटर किसी देव से कम नहीं होता। यह हमारी ख़ुशनसीबी है कि कभी पाँच साल में एक बार होने वाले चुनाव अब हर साल में पाँच मर्तबा होते हैं। ये चुनाव पूरे देश में सारा साल तो चलते हैं। पर हमारा दुर्भाग्य कि ये चुनाव पूरे देश में एक साथ नहीं होते। टुकड़ों में होते हैं। बिल्कुल टुकड़ा-टुकड़ा गैंग की तरह। इसीलिए टुकड़ा-टुकड़ा गैंग की तरह चुनावों को देशभक्त नहीं कहा जा सकता। चुनाव तभी देशभक्त कहे जा सकते हैं, जब पूरे भारत में ईवीएम देश की राजधानी से लेकर तृणमूल स्तर, क्षमा करें ग्रास रूट लेवल तक एक साथ पीं बोलें। ऐसे में ईवीएम के सुचारू प्रबंधन में कोई बाधा नहीं आएगी और हो सकता है कि वे कूड़े के ढेर या नगर निगम के ट्रकों में न मिलें या प्रशासनिक अधिकारियों को इन्हें अपनी गाडि़यों में न ढोना पढ़े। कहते हैं जब देश आज़ाद हुआ था, तब जो चुनावों में हिनहिनाते थे उनमें से अधिकांश घोड़े होते थे। अब तो केवल हिनहिनाना ही शेष बचा है।

चाय से गाय तक के सफर में हो सकता है कि आने वाले चुनावों में गोमूत्र को राष्ट्रीय पेय घोषित करने के बाद न पीने वालों को गद्दार घोषित कर दिया जाए या फिर पाकिस्तान जाने की सलाह दी जाए। यह भी हो सकता है कि जो जितना ज़्यादा गोमूत्र पिए, उसे उतने ही बड़े देशभक्त का दरजा दिया जाए और बिना चुनाव लड़े ही पिछले दरवाज़े से संसद में बिठा दिया जाए। समय के साथ देश ने अपनी तरक्क़ी की रफ़्तार बढ़ाई और चुनावों को मुद्दों की बजाय मुरदों पर लड़ना आरंभ कर दिया। हर रोज़ एक नया मुरदा क़ब्र से उखाड़ा जाने लगा। पहले जब काँग्रेस की सरकार थी तब मुरदों को जगा कर भारत रत्न दिए जा रहे थे। अब ऐसे स्थानों को जिलाने की कोशिश की जा रही है जिन्हें भावनाओं के चूल्हे पर चढ़ा कर आसानी से उबाला जा सकता है। हर रोज़ नए मुरदों के साथ अवतरित होने वाले युग पुरुष दिन में छह बार नए ब्रेंडेड परिधानों में प्रकट होते हैं। जैसा कार्यक्रम वैसा परिधान। कभी गले में रुद्राक्ष तो कभी शॉल संभालते हुए।
संतों ने सच ही कहा है, 'हरि से बड़ा हरि का नाम'। चाहे हरि की नोटबंदी फ्लॉप रहे, आर्थिकी का बेड़ा गर्क हो, बेरोज़गारी बढ़े, बुलेट ट्रेन भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध होने वाली कार्रवाई की तरह खड़ी रह जाए, अच्छे दिन काले धन में बदल जाएं, मेक इन इंडिया बीफ के निर्यात की तरह विदेश के लिए खुला रहे या चीन की गतिविधियाँ स्वच्छता अभियान की तरह मुँह चिढ़ाती रहें, भक्त सदा अपने प्रभु का नाम जपते रहेंगे। देश विकास कर रहा है या चुनाव कर रहा है, कुछ समझ नहीं आता। लेकिन जब किसी प्रदेश के शरीफ़ मुख्यमंत्री को चुनाव जिताने के लिए युग पुरुष चुनावों से छह महीने पहले ही अपने पूरे दल-बल के साथ राज्य के दौरे करने लगते हैं, तब लगता है कि देश चुनावी उत्सव मोड में काशी घाट पर गंगा की आरती उतार रहा है। वैसे तो राजनीति में किसी पद के साथ शरीफ शब्द का इस्तेमाल स्वतः विरोध अलंकार की सूचना देता है। पर जब राज्य में होने वाली भर्तियों में घोटाले और पेपर लीक के मामले आए दिन सामने आ रहे हों, भ्रष्टाचार प्रदेश पर चढ़ने वाले क़र्ज़ की तरह हर पल बढ़ता जा रहा हो और डबल इंजन की सरकार एक्सट्रा पॉवर की माँग करे, तब लगता है कि देश चुनाव में विकास कर रहा है।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं

सोर्स- divyahimacha

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