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हमारी संसद देश की चुनाव प्रणाली में सुधार लाने के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में 1950 से लेकर अब तक कई संशोधन कर चुकी
हमारी संसद देश की चुनाव प्रणाली में सुधार लाने के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में 1950 से लेकर अब तक कई संशोधन कर चुकी है। लेकिन जब तक चुनाव कराने वाले निर्वाचन आयोग का सुधार नहीं हो जाता, तब तक चुनाव सुधार के प्रयास महज औपचारिक ही रहेंगे।
दरअसल, संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुनाव सम्पन्न कराने के लिए अनुच्छेद 324 में निर्वाचन आयोग की व्यवस्था की है और संविधान की मूल भावना के अनुसार आयोग को निष्पक्ष तो होना ही चाहिए, साथ ही उसको ऐसा ही दिखना भी चाहिए, जो कि नहीं दिखाई देता है, क्योंकि आयोग कार्यपालिका का ही अंग है और केंद्र में जिस भी पार्टी की सरकार होती है, वह आयोग को अपने प्रभाव से मुक्त करना नहीं चाहती है। राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियां वहां की निर्वाचन मशीनरी को दबाव में रखती हैं।
हमारा देश भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, राजनीति-नौकरशाही और अपराधियों का गठजोड़, कुशासन और तरक्की के अवसरों पर मुट्ठीभर लोगों का कब्जा आदि विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त है। न्याय भी आम आदमी की पहुंच से दूर है। इन सभी समस्याओं का मूल हमारी चुनाव प्रणाली में ही छिपा हुआ है। इन विकृतियों से निजात चुनाव प्रणाली में सुधार से ही मिल सकती है और चुनाव प्रणाली में सुधार वोटरों और राजनीतिक दलों के लिए कानून में बदलाव के साथ ही निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने से ही संभव है।
वर्तमान में निर्वाचन आयोग कार्यपालिका का ही एक अंग है, इसलिए उसकी निष्पक्षता पर हमेशा ही उंगलियां उठती रहती हैं। अतः आज जरूरत आयोग को विश्वसनीय बनाने की है।
आयोग में सुधार के लिए जो सिफारिशें की गईं थीं, उन पर कार्यवाही नहीं हुई।
चुनाव आयोग की भूमिका और देश
चुनावों में सत्तारुढ़ दल द्वारा सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग नई बात नहीं है। विपक्षी दल चुनावों में प्रशासनिक तंत्र के दुरुपयोग के विरुद्ध हमेशा आवाज उठाते रहे हैं। लेकिन जब विपक्षी दल सत्तारूढ़ होते हैं तो फिर उन पर भी चुनावों में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगता है। निर्वाचन अधिकारियों पर अनुचित रूप से राजनीतिक दबाव डाले जाते हैं।
आयोग पर केंद्र सरकार का और राज्यों की निर्वाचन मशीनरी पर राज्य की सत्तारूढ़ पार्टियों का दबाव रहता है। चुनाव से ठीक पहले राज्य सरकारें अपने भरोसेमंद अधिकारियों को महत्वपूर्ण स्थानों पर फिट कर लेती हैं, इसीलिए राज्यों में भी निर्वाचन आयोग के गठन की सिफारिश हो चुकी है।
वर्तमान में राज्य का ही कोई आईएएस अधिकारी राज्य का मुख्य निर्वाचन अधिकारी होता है, जोकि अन्य जनसेवकों की तरह राज्य सरकार का सेवक होता है और उस पर सत्ताधारी दल का प्रभाव हो सकता है। जिला मेजिस्ट्रेट ही निर्वाचन अधिकारी होते हैं जोकि अपनी सरकार के अधीन होते हैं। कहने के लिए चुनाव के दौरान सारी मशीनरी निर्वाचन आयोग के अधीन आ जाती है, जिसकी अपनी निष्पक्षता हमेशा ही संदेह के घेरे में रहती है।
दरअसल, चुनाव सुधारों की प्रक्रिया 1951 से ही शुरू हो गई थी। इसी क्रम में आयोग को निष्पक्ष बनाने एवं चुनाव में धनबल, बाहुबल जैसे अनुचित माध्यमों का इस्तेमाल रोकने के लिए 1974 में तारकुण्डे समिति से लेकर 2010 में तनखा समिति तक 8 के करीब समितियों का गठन हो चुका है। सभी ने निर्वाचन प्रक्रिया में सुचिता लाने के लिए कई सुझाव दिए, जिन पर कार्यवाही भी हुई। जैसे इलेक्शन पिटीशन के लिए ट्रिब्यूनल में जाने के बजाए हाइकोर्ट में जाना, मतदान की आयु 21 से घटाकर 18 वर्ष करना, ईवीएम मशीनों का प्रयोग, मतदाता पहचान पत्रों का चलन, दो से अधिक क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर रोक, मतदान कर्मियों को सीधे निर्वाचन आयोग के अधीन करना, चुनाव खर्च की सीमा तय करना आदि कई सुधार शामिल हैं। लेकिन आयोग में सुधार के लिए जो सिफारिशें की गईं थीं, उन पर कार्यवाही नहीं हुई।
आयोग में दो अतिरिक्त आयुक्तों की पहली बार नियुक्ति 16 अक्टूबर 1989 को हुई थी, जिनका कार्यकाल बहुत ही कम 1 जनवरी 1990 तक रहा। उसके बाद 1 अक्टूबर 1993 से नियमित रूप से केंद्र सरकार द्वारा मुख्य आयुक्त के साथ दो अन्य आयुक्त नियुक्त किए जाने लगे।
बीते साल चुनाव आयोग ने मद्रास हाईकोर्ट की फटकार लगाई थी।
सुधार के कदम और समितियों में सिमटी प्रक्रिया
तारकुंडे समिति (1974-75) के बाद दिनेश गोस्वामी समिति (1990) ने भी निर्वाचन आयोग को निष्पक्ष और दबाव मुक्त बनाने के लिए आयोग की नियुक्तियों में सरकार का एकाधिकार समाप्त करने की सिफारिश की थी। तारकुंडे समिति की सिफारिश पर मतदान की उम्र 21 से घटाकर 18 तो हो गई, मगर निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार केन्द्र सरकार ने नहीं छोड़ा।
तारकुंडे समिति ने तीन सदस्यीय एक कमेटी की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति की सिफारिश की थी। इस कमेटी में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष का नेता या विरोध पक्ष का प्रतिनिधि होना था।
तारकुण्डे समिति ने निर्वाचन आयोग की सहायता के लिए केंद्र और राज्यों में स्वायत्त निर्वाचन परिषदें बनाने का भी सुझाव दिया था। इसके साथ ही अनुचित कामों पर निगरानी के लिये ''मतदाता परिषद'' के गठन का भी सुझाव दिया था।
मई 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति ने भी सिफारिश की थी कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति भारत के प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता द्वारा की जानी चाहिए और अन्य सदस्यों की नियुक्ति मुख्य निर्वाचन आयुक्त से परामर्श कर होनी चाहिए। सभी निर्वाचन आयुक्तों का कार्यकाल 5 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक करने की सिफारिश भी थी। उसके बाद सरकारों ने अन्य सिफारिशें तो मान लीं मगर निर्वाचन आयोग पर सरकारी नियंत्रण हटाने की सिफारिश अब तक सभी सरकारें टालती गईं। वर्तमान में मुख्य निर्वाचन आयुक्त को सरकार अपनी सुविधानुसार नियुक्त करती है और उसे केवल संसद द्वारा ही हटाया जा सकता है और संसद में सत्ताधारी दल का ही बहुमत होता है।
अब तक निर्वाचन आयोग से लेकर सीएजी और लोकसेवा आयोगों में लगभग सभी संवैधानिक पदों पर केंद्र सरकार अपने पसंद के लोगों को नियुक्त करती रही है। सवाल उठता है कि जब सीबीआई निदेशक, सूचना आयुक्त और लोकपाल/लोकायुक्त जैसे संवैधानिक पदों पर सरकार, न्यायपालिका, विधायिका और प्रतिपक्ष के नेता वाली कमेटी की सिफारिश पर नियुक्तियां हो सकती हैं तो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्तियां भी इसी तरह सर्वसम्मति से क्यों नहीं हो सकतीं?
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
Gulabi
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