सम्पादकीय

चुनाव आयोग कृपया ध्यान दे

Rani Sahu
7 Dec 2021 9:29 AM GMT
चुनाव आयोग कृपया ध्यान दे
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कोरोना का ओमीक्रोन स्वरूप इस समय समूची दुनिया में आतंक फैलाए हुए है

शशि शेखर। कोरोना का ओमीक्रोन स्वरूप इस समय समूची दुनिया में आतंक फैलाए हुए है। शुरुआती शोध के अनुसार, यह वेरिएंट कोरोना के अन्य स्वरूपों के मुकाबले पांच गुना अधिक संक्रामक है। वायरस के इस नए हमले के बीच पांच राज्यों में चुनावी रैलियों का रेला उमड़ रहा है। क्या हमें चुनावी रैलियों को सुपर स्पे्रडर बनने से रोकने के लिए प्रयास तत्काल शुरू नहीं कर देने चाहिए?

डॉक्टरों का एक तबका ऐसा है, जो अभी से लॉकडाउन जैसे प्रतिबंध लगाने की पैरवी कर रहा है। ऐसे लोग अपने तर्क के समर्थन में भयावह आंकडे़ पेश करते हैं कि दुनिया के सबसे अमीर देश किस तरह अभी तक कोरोना से पार पाने में अक्षम साबित हुए हैं। भारत भाग्यशाली है कि यहां पिछले कई हफ्तों से प्रतिदिन 10 हजार से भी कम नए मामले सामने आ रहे हैं, जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा हर रोज 80 हजार के पार पहुंच रहा है।
यही वजह है कि तमाम मुल्कों ने कठोर पाबंदियां और जुर्माने लागू कर दिए हैं। ग्रीस में टीका न लगवाने वालों को 113 डॉलर मासिक का जुर्माना देना पड़ सकता है। 60 वर्ष से ऊपर के जो लोग अभी तक टीकाकरण से कन्नी काटते आए हैं, उनकी पेंशन में से एक-तिहाई कटौती का भी प्रस्ताव किया गया है। ब्रिटेन, जहां कुछ दिनों पहले तक लोग बिना मास्क के घूम रहे थे, वहां फिर से सार्वजनिक स्थानों पर मास्क लगाना अनिवार्य कर दिया गया है। न्यूजीलैंड और ताइवान जैसे देश, जिनकी कोरोना रोकथाम के मामले में तारीफ हो रही थी, हकबकाए नजर आ रहे हैं। साधनहीन अफ्रीका के तमाम मुल्कों में कर्फ्यू लागू है।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन से पिछले दिनों पत्रकारों ने पूछा कि क्या इस नए वेरिएंट के खतरे को देखते हुए पुराने प्रतिबंधों की वापसी हो सकती है? राष्ट्रपति का उत्तर संयत था कि अभी ऐसा नहीं लगता और हम अर्थव्यवस्था पर इसके दूरगामी परिणाम नहीं देख रहे हैं। राजनेता अक्सर आश्वासनों की चासनी से पगे शब्द बोलते हैं। बाइडन के पूर्ववर्ती ट्रंप ने कैसे कोरोना का उपहास उड़ाया था और उसका क्या असर इस महादेश पर पड़ा, यह सबके सामने है। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने भी यही गलती की थी, जिसका खामियाजा बरतानिया के लोग आज तक उठा रहे हैं।
आशंकाओं और हड़बड़ी के इस दौर में भारत की स्थिति क्या है?
यह ठीक है कि केंद्र और राज्य सरकारों के अनथक प्रयासों की वजह से हम महामारी को काफी हद तक काबू करने में सक्षम साबित हुए हैं, परंतु ओमीक्रोन आगे कैसा बर्ताव करेगा, इसकी जानकारी किसी के पास नहीं है। सरकारी मशीनरी हाई अलर्ट पर है, पर भूलें नहीं, देश के पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार शुरू हो चुका है। प्रधानमंत्री से लेकर नितांत इलाकाई नेताओं तक की रैलियों में लोग उमड़ रहे हैं। बंगाल के चुनाव और हरिद्वार केकुंभ ने जो कहर ढाया था, वह हमारी स्मृतियों में किसी नई लगी चोट की तरह ताजा है।
भारतीय चुनाव आयोग की उस दौरान कड़ी निंदा की गई थी कि उसने चुनावों के लिए जरूरी सरंजाम जुटाते वक्त जरूरी एहतियातों को नजरअंदाज कर दिया। क्यों नहीं केंद्र सरकार, सभी राजनीतिक दल और चुनाव आयोग मिलकर इसका उपाय ढूंढ़ने की माथापच्ची अभी से शुरू कर देते? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसका अनुकरणीय उदाहरण पेश कर चुके हैं। हरिद्वार कुंभ को प्रतीकात्मक करने का उनका आह्वान साधु-संतों ने खुले दिल से स्वीकार किया था। इतिहास ऐसे फौरी उपायों को 'युगीन आवश्यकता' बनाता है। अगर कुंभ प्रतीकात्मक बनाया जा सकता है, तो चुनाव प्रचार को क्यों नहीं?
यह सोशल मीडिया और संचार के संसाधनों का युग है। भारत में 50 करोड़ से अधिक लोग स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं। करीब 77 करोड़ भारतीय इंटरनेट के जरिये हर समय देश और दुनिया से भी जुडे़ रहते हैं। समाचार-विचार और संवाद का प्रवाह अब पुराने तरीकों पर निर्भर नहीं रह गया है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनावों से पहले इन साधनों का उपयोग कर नई लीक गढ़ी थी। अहमदाबाद में बैठकर उन्होंने देश के हजार स्थानों पर एक साथ 'चाय पर चर्चा' की थी। नतीजे गवाह हैं कि इसका भाजपा और एनडीए को खासा लाभ मिला था। यह अवसर इस सिलसिले को आगे बढ़ाने का है।
समय आ गया है, जब 'जनहित' की बात करने वाले राजनीतिक दल एकजुट होकर तय करें कि अब मतदाताओं से संपर्क के पुराने तरीकों को तिलांजलि दे दी जाए। इससे उनके विचार मतदाता तक आनन-फानन में पहुंचेंगे और भीड़ जुटाने में जो संसाधन खर्च होते हैं, उससे काफी कम में कारथ सध जाएगा। वैसे भी, मतदाता इतना जागरूक हो चुका है कि रैलियों की भीड़ अब चुनाव जिताने की गारंटी नहीं बची।
अगर आधुनिक तकनीक के साथ चुनाव प्रचार पर एका बन सका, तो इससे चुनावों में काले धन के दुरुपयोग पर भी रोक लगेगी। चुनाव आयोग को बड़ी रैलियों को प्रतिबंधित कर मीडिया के इस्तेमाल पर व्यय होने वाले धन की सीमा में ढील देनी चाहिए, ताकि खर्च का ब्योरा पारदर्शी हो सके। इससे हासिल होने वाले कर से सरकारी खजाने की सेहत में भी सुधार हो सकेगा। नेताओं को अपना संदेश लंबे समय तक कायम रखने और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए मीडिया की जरूरत पड़ती ही है। यही नहीं, चुनाव प्रचार स्थानीय स्तर पर अक्सर आपसी मनमुटाव को हवा देते हैं। चुनावों के बाद भी ये सियासी रंजिशें हिंसा का सबब बनती हैं। इन सारी समस्याओं का समाधान भी इसके जरिये खुद-ब-खुद हो जाएगा।
आप पूछेंगे कि यह होगा कैसे? क्या राजनेता इसे मानेंगे? अपनी बात को साफ करने के लिए मैं आपको 19वीं सदी के दौरान बंगाल से शुरू हुए सामाजिक सुधार आंदोलन का उदाहरण देना चाहूंगा। इन आंदोलनों की राह तो और भी ज्यादा कठिन थी। सती-प्रथा, बाल विवाह, अस्पृश्यता, जमींदारी जैसे महारोग सैकड़ों साल से समाज को मथ रहे थे, पर इन सुधारों ने धीमे-धीमे आकार लिया और आज का भारतीय समाज गर्व से कह सकता है कि हममें अपनी बुराइयों को खुद-ब-खुद दूर करने का माद्दा है। भूलें नहीं। चुनाव भारत के महज पांच सूबों में होने हैं और इनमें हिस्सा लेने वाले राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं की संख्या कुछ हजारों में है, जबकि सामाजिक सुधारों से तो समूचा भारतीय समाज प्रभावित होना था।
क्या चुनाव आयोग इस पहल की हिम्मत जुटा पाएगा?
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