सम्पादकीय

चुनाव की आहट और सरगर्मियां

Rani Sahu
17 Oct 2021 6:54 PM GMT
चुनाव की आहट और सरगर्मियां
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चुनाव आते ही विभिन्न तरह की राजनीतिक सरगर्मियां शुरू हो जाती हैं। ये चुनाव फिर चाहे पंचायत स्तर के हों अथवा विधानसभा या लोकसभा के। जो पार्टियां चुनाव से पूर्व सोई रहती हैं

चुनाव आते ही विभिन्न तरह की राजनीतिक सरगर्मियां शुरू हो जाती हैं। ये चुनाव फिर चाहे पंचायत स्तर के हों अथवा विधानसभा या लोकसभा के। जो पार्टियां चुनाव से पूर्व सोई रहती हैं, चुनावों के दौरान अचानक ही लंबी नींद की खुमारी के बाद जाग उठती हैं। जागकर तरह-तरह से अनाप-शनाप बोलना, अपने विरोधियों को कोसने और गालियां तक देने लग जाती हैं। जब चुनाव नहीं हो रहा होता है तो पता भी नहीं चलता कि ये पार्टियां अथवा पार्टियों के राजनीतिक लोग जो अपने को नेता कहते हैं, कहीं नजर नहीं आते हैं। गोया उन्हें आम लोगों, अपने क्षेत्र, प्रदेश अथवा देश से कोई सरोकार ही न हो! अक्सर यह देखा गया है कि चुनावों की घोषणा होते ही ये लोग न जाने किस गुफा, कंदरा से बाहर निकल आते हैं और आम लोगों को बहकाने तथा धर्म-जाति, सामाजिक स्थिति-हैसियत पर लोगों को बांटने में लग जाते हैं। आम लोगों की समस्याओं को सुलझाने-सुधारने की बात प्रायः नहीं करेंगे। एक-दूसरे के व्यक्तिगत गुण-दोषों को मुद्दा बनाकर चुनावी वैतरणी पार करने की बेताबी में, असंभव को भी संभव बनाने के दावे करने शुरू कर देते हैं। आम जनता उनकी इन जाति-धर्म, वंश-परिवार, वर्ण-हैसियत के झांसे में आकर अपने वोट की ताकत-कीमत को बिसरा, अयोग्य और निकम्मे प्रत्याशियों को जिताने का जरिया बन जाते हैं।

चुनावों के दौरान किसी भी राजनीतिक व्यक्ति को चाहे किसी भी पार्टी से हो, उसे विरोधी दल के उम्मीदवार पर व्यक्तिगत आक्षेप, टीका-टिप्पणी करने की बजाय अपने चुनाव क्षेत्र की समस्याओं का निराकरण, अपेक्षित सुविधाएं उपलब्ध कराने, विकास और पब्लिक की खुशहाली को बढ़ाने के उपायों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए इस आधार पर आम लोगों का समर्थन प्राप्त करना चाहिए। सजग नागरिक अथवा मतदाता को भी चाहिए कि वे किसी जाति-धर्म, वंश-परिवार, अमीर-गरीब पर ध्यान दिए बिना उसकी राजनीतिक योग्यता, नेकनीयती, पूर्व में उसके द्वारा किए गए कार्यों, इच्छा शक्ति, उसके वायदों को निभाने की क्षमता के आधार पर इनका विश्लेषण करते हुए अपने मताधिकार का सही उपयोग करना चाहिए। मौजूदा समय में हम देख रहे हैं कि राजनीतिक पार्टियां, उनके तथाकथित नेता अपने को किसान, राजवंश, दलित, सैनिक, अमीर-गरीब इत्यादि वर्गों में बांटकर लोगों को अपने समधर्मी, समजाति, समपेशा से जोड़, उनकी भावनाओं को भुनाकर वोट मांगते हैं। ऐसी सोच अत्यंत निंदनीय होने के साथ-साथ विभाजनकारी भी है। आम लोगों को इनकी कुत्सित चालों और निजी स्वार्थ को पहचानना आवश्यक है। आम मतदाता को ऐसे व्यक्ति अथवा उम्मीदवार को अपना वोट देना चाहिए, जो उनके क्षेत्र, प्रदेश तथा समग्र रूप में देश हित में सोचता और कार्य करता हो! न कि किसी पार्टी विशेष एवं व्यक्ति विशेष को देखकर अपने मत का दुरुपयोग करना चाहिए।
आज राजनीति एक व्यवसाय और कैरियर बनाने का साधन बन चुका है। जो लोग यह सोचते हैं कि तथाकथित पार्टी अथवा दल का व्यक्ति देश हित में कार्य कर रहा है, देश की आम जनता की भलाई के प्रति गंभीर व चिंताग्रस्त है तथा उनकी भलाई करने के उद्देश्य से ही चुनाव लड़ रहा है, ऐसे लोग केवल मुगालते में ही हैं। जिन राज्यों अथवा स्थानों में कांग्रेस का शासन नहीं है, उन राज्यों में चुनावों की घोषणा होते ही इस पार्टी के लोग अचानक ही पता नहीं कहां से निकल कर आ गए और ताल ठोंकने लगे हैं। जब चुनाव नहीं थे, तब ये सोये हुए थे। लोगों से इन्होंने कोई संपर्क नहीं किया। किसी के दुख-तकलीफ में शामिल नहीं हुए। शासक पार्टी की गलतियों को सार्वजनिक नहीं किया। उनके गलत कार्यों को रोकने की कोशिश नहीं की। चुनाव आते ही अब अचानक अपने बिलों से बाहर आकर बिलबिलाने लगे हैं। कोई भी व्यक्ति अथवा पार्टी, चाहे सरकार में हो न हो, यदि सही रूप में आम जरूरतमंदों की बिना किसी भेदभाव के सहयोग-सहायता करते हुए, उनके निरंतर संपर्क में रहा हो, ऐसे व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनना चाहिए। फिर वह चाहे किसी भी पार्टी का क्यों न हो। इतिहास गवाह है कि दुनिया में केवल उसी व्यक्ति का नाम याद रहता है जो बहुत योग्य रहा हो, और बहुत अच्छे कार्य किए हों। अथवा बिल्कुल निकम्मे और मक्कार का नाम घृणा से लिया जाता है, जिसने मक्कारी और अय्याशी के अतिरिक्त कुछ नहीं किया होता है।
यह आम पब्लिक पर निर्भर करता है कि वह धर्म-जाति, वंश-परिवार, क्षेत्र-इलाके की भावना से ऊपर उठकर केवल योग्यता और बेदाग, ईमानदार छवि के प्रति अपना मन बनाए तथा अपने मताधिकार का प्रयोग करे। सत्तारूढ़ पार्टी को अपने कार्यकाल के दौरान आम लोगों, जनहित में किए गए कार्यों, अपनी उपलब्धियों का उल्लेख करना चाहिए। न कि अपनी अक्षमता को छिपाने के लिए विपक्षी पार्टी के खानदान-परिवार, जाति-धर्म के नाम पर कोसना और गारियाना। अमेरिका में कितनी अच्छी पद्धति है। वहां डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन दोनों पार्टियां चुनावों से पूर्व देश और समाज हित में किए जाने वाले कार्यों की सूची सार्वजनिक तौर पर जारी करते हैं। फिर घोषित एजेंडा के अनुरूप चुनाव प्रचार करते हुए मतदाताओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास करते हैं। लेकिन भारत में कुछ रुपयों और दारू-शराब की एक बोतल के बदले गरीब का वोट खरीद लिया जाता है। वर्तमान राजनीतिक माहौल में ईमानदार और गरीब व्यक्ति विधानसभा अथवा लोकसभा का चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता है क्योंकि उसके पास धनबल नहीं होता है। जिसके पास धन है, उसके पास बल भी है और दल भी है। गरीब की प्रतिभा अब अधिक मायने नहीं रखती है। जहां धनबल नहीं होता है, वहां अन्य सारे बल निस्तेज हो जाते हैं।
शेर सिंह
साहित्यकार


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