सम्पादकीय

चुनाव का बिगुल

Subhi
17 Oct 2022 5:15 AM GMT
चुनाव का बिगुल
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मगर निर्वाचन आयोग ने हिमाचल प्रदेश में चुनाव और मतगणना की तारीख तो घोषित कर दी, पर गुजरात चुनाव की तारीखें बाद में घोषित करने को कहा। इसे लेकर तरह-तरह के राजनीतिक कयास लगाए जाने लगे। कुछ लोगों का कहना है कि निर्वाचन आयोग ने यह फैसला केंद्र सरकार के इशारे पर किया।

Written by जनसत्ता: मगर निर्वाचन आयोग ने हिमाचल प्रदेश में चुनाव और मतगणना की तारीख तो घोषित कर दी, पर गुजरात चुनाव की तारीखें बाद में घोषित करने को कहा। इसे लेकर तरह-तरह के राजनीतिक कयास लगाए जाने लगे। कुछ लोगों का कहना है कि निर्वाचन आयोग ने यह फैसला केंद्र सरकार के इशारे पर किया।

आमतौर पर, और नियम के मुताबिक भी, जब एक से अधिक राज्यों की विधानसभा के कार्यकाल में पांच महीने का अंतर रहता है, तो उनके चुनाव एक साथ कराए और नतीजे भी एक ही दिन घोषित किए जाते हैं। हिमाचल प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल अगले साल जनवरी में और गुजरात का फरवरी में समाप्त होगा। इसलिए दोनों के चुनाव एक साथ कराने की उम्मीद की जा रही थी। मगर निर्वाचन आयोग का कहना है कि उसने पिछले चुनाव के नियमों को ध्यान में रखते हुए तारीखें घोषित करने का फैसला किया। उस वक्त भी पहले हिमाचल में और फिर गुजरात में चुनाव कराए गए थे। मगर यह तर्क कई लोगों को गले नहीं उतर रहा। वे इसे सत्तारूढ़ भाजपा की सोची-समझी रणनीति के रूप में देख रहे हैं।

कुछ लोग इसे दोनों राज्यों के पिछले विधानसभा चुनाव नतीजों के आंकड़े की नजर से भी देख रहे हैं। हिमाचल और गुजरात में बेशक भाजपा की सरकार हो, पर पिछले चुनाव में इन दोनों राज्यों में उसे खासी चुनौती का सामना करना पड़ा था। यह भी कि पिछले तीन विधानसभा चुनावों से गुजरात में भाजपा की सीटें लगातार कम होती रही हैं। हिमाचल में भी पार्टी में अंदरूनी असंतोष की बात की जा रही है, जिससे पार पाना जरूरी है।

पिछले चुनाव में उसके मुख्यमंत्री पद के दावेदार ही चुनाव हार गए थे। फिर सत्तारूढ़ दल को सत्ता-विरोधी लहर का भय तो सताता ही है। इसलिए विश्लेषकों का मानना है कि अलग-अलग चुनाव कराने से भाजपा को दोनों राज्यों में प्रचार और चुनावी रणनीति आदि बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा। मगर यह तर्क तो सभी राजनीतिक दलों पर लागू होता है। उन्हें भी उतना ही समय मिलेगा और उनके बड़े नेताओं को प्रचार का उतना ही मौका मिलेगा। इसलिए इसे सत्तारूढ़ दल की रणनीति कहना उचित नहीं जान पड़ता।

चुनाव कराना खासा पेचीदा काम होता है। राज्यों की भौगोलिक स्थितियों, मौसम आदि का ध्यान रखते हुए इंतजाम करने पड़ते हैं। हिमाचल पहाड़ी राज्य है और वहां की ऊंचाई वाली जगहों पर मतदान केंद्र बनाना, मतदान कराना और फिर मतपेटियों को मतगणना केंद्रों तक पहुंचाना मैदानी इलाकों की अपेक्षा थोड़ा मुश्किल काम होता है। फिर दो राज्यों में एक साथ चुनाव कराने से चुनाव नतीजों के लिए तब तक लंबा इंतजार करना पड़ता है, जब तक दोनों राज्यों में मतदान की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती। इस बार निर्वाचन आयोग ने मतदान और मतगणना के बीच की अवधि को कम कर दिया है।

हालांकि दोनों राज्यों में राजनीतिक पार्टियों ने पहले से ही चुनाव की तैयारियां कर रखी हैं। भाजपा के प्रमुख प्रचारक वहां जाकर कई रैलियां कर चुके हैं। गुजरात में तो आम आदमी पार्टी ने कई महीने पहले चुनावी बिगुल फूंक दिया था और वह पूरे आत्मविश्वास के साथ प्रचार में लगी हुई है। इसलिए हिमाचल में पहले चुनाव कराने को सियासी रणनीति के रूप में देखने के बजाय अब पार्टियों को अपने चुनावी मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।


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