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जाति से राजनीति चमकाने की कोशिश, जनगणना से क्या होगा पिछड़ी जातियों का कल्याण
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| पूजा सिंह | उन्नीसवीं सदी के अमेरिकी विचारक हेनरी ए वालेस ने राजनेताओं के बारे में कहा है कि उनका अंतिम उद्देश्य है राजनीतिक सत्ता हथियाना। इसके लिए वे सारे छल-प्रपंच करते हैं, ताकि आम आदमी को वे शाश्वत अधीनता में रख सकें। भारतीय संदर्भो में उनका कथन क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर बहुत दूर तक लागू होता है, जो बुनियादी मुद्दों के बजाय अस्मिता या जाति की राजनीति करते हैं। देश में जाति के आधार पर जनगणना की मांग इसी की कड़ी है। इसमें कई सवाल हैं-जाति के आधार पर जनगणना की मांग क्यों की जा रही है? क्या यह पिछड़ी जातियों के कल्याण के लिए है? क्या यह राष्ट्रहित में है?
सरकार की नीति-योजनाआं का लाभ सभी जातियों को ठीक से नहीं मिल पाता
जदयू और राजद समेत बिहार के कई दलों के प्रतिनिधियों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलकर 2021 की जनगणना में जाति आधारित जनगणना को शामिल करने की मांग की है। इसकी मांग सपा और राकांपा सहित देश के दूसरे क्षेत्रीय दल भी करने लगे हैं। चूंकि एससी और एसटी की जातिगत जनगणना पहले से ही होती है अत: यहां मांग ओबीसी की गणना के लिए है
पिछड़ी जातियों को उचित हक नहीं मिल पाया
इन दलों का तर्क है कि सरकार की नीति-योजनाओं का लाभ सभी जातियों तक ठीक-ठीक पहुंचे इसके लिए जातिगत आंकड़े जरूरी हैं, लेकिन यह छिपा नहीं कि जनहित के बजाय इनका असली उद्देश्य मोदी सरकार को घेरना है। दरअसल एससी, एसटी और ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) के साथ-साथ ओबीसी के हित में कई अहम निर्णय कर चुकी मोदी सरकार के हालिया कदमों से जाति की राजनीति करने वाले दलों में खलबली मची हुई है। पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा, राज्यों को ओबीसी पहचान का अधिकार, मेडिकल-नीट के केंद्रीय कोटे में ओबीसी आरक्षण और केंद्रीय मंत्रिपरिषद में ओबीसी की अभूतपूर्व सर्वाधिक संख्या आदि ने इन दलों की जमीन खिसका दी है। चूंकि मोदी सरकार के खिलाफ उन्हें कोई ठोस एजेंडा नहीं मिल पा रहा तो एक बार फिर जाति का जिन्न बोतल से निकालने की कोशिश हो रही है।
जाति जनगणना से देश की एकता और अंखडता होती प्रभावित
हालांकि, जाति हमारे समाज का यथार्थ है। दावा किया जाता है कि उच्च सोपान पर बैठीं तथाकथित सवर्ण जातियों के हाथों में ही कथित रूप से सत्ता-समृद्धि केंद्रित रही। पिछड़ी जातियों को उचित हक नहीं मिल पाया। इस बात को जानते हुए भी डा. आंबेडकर, नेहरू और पटेल आदि नेताओं ने जनगणना में जाति गणना को दूर ही रखा, क्योंकि देश की एकता और अखंडता इससे प्रभावित होती। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो नीति के वे प्रत्यक्षदर्शी थे
अंग्रेजी राज में जातिगत जनगणना राष्ट की एकता कमजोर करने की थी साजिश
मार्क गैलेंटर जैसे पश्चिमी समाजशास्त्रियों तक का कहना था कि अंग्रेजी राज में जातिगत जनगणना भारतीय राष्ट्र की अवधारणा और एकता को कमजोर करने की औपनिवेशिक साजिश थी। स्वतंत्र भारत में भी पिछड़ी-कमजोर जातियों को उनका उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया तो इसकी वजह थी मंडल आंदोलन के पश्चात आरक्षण या अन्य योजनाओं का लाभ चंद जातियों और कुछ परिवारों में सीमित रह जाना। विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि ओबीसी राजनीति में नेतृत्व कुछ जातियों तक सीमित है। उसी तरह आरक्षण का लाभ भी कुछ ही जातियों को मिला है। ओबीसी की अधिकांश जातियों की दशा में यह अवसरवादी नेतृत्व आगे सुधार लाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं।
खिसकती हुई राजनीतिक जमीन को बचाना है लक्ष्य
आज भी जाति आधारित जनगणना की उनकी मांग के पीछे उद्देश्य इन कमजोर तबकों का कल्याण नहीं, बल्कि अपनी खिसकती हुई राजनीतिक जमीन को बचाना है। ऐसी मांग कर रहे दलों को लगता है कि ओबीसी आबादी के आंकड़े 50 फीसद से ज्यादा होने पर रोजगार-शिक्षा आदि में वर्तमान के 27 फीसद से ज्यादा आरक्षण की मांग कर फिर से अपनी राजनीति चमका सकते हैं, लेकिन वे कई चीजें भूल रहे हैं। जैसे-मंडल वाले फैसले में 27 फीसद आरक्षण देते समय यह मानकर चला गया था कि देश में ओबीसी आबादी 52 फीसद है, जो स्तर 1931 के जनगणना आंकड़ों के आधार पर था।
1992 में आरक्षण की सीमा 50 फीसद की गई थी
1992 में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 फीसद कर दी थी। इसने अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के आधार पर आरक्षण की अनुशंसा तो की, लेकिन इसे अनुच्छेद 335 के साथ पढ़े जाने की सिफारिश की, जिसके अनुसार प्रशासन की दक्षता के संगत ही आरक्षण होना चाहिए। यद्यपि 1931 के बाद जातीय जनगणना के आंकड़े नहीं हैं, परंतु 2007 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) ने एक सर्वेक्षण कर देश में ओबीसी आबादी 41 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया था। यह मंडल आयोग के अनुमानित 52 फीसद से कम ही रहा। जातिगत जनगणना के बाद यह संख्या चाहे कम हो या अधिक, विवाद तो उठेगा ही, जो सामाजिक समरसता को कमजोर करेगा। एक अनुमान यह भी है कि जिन जातियों की संख्या ज्यादा होगी, राजनीतिक दल उन्हीं को पूछेंगे और कम संख्या वाली जातियां हाशिये पर चली जाएंगी।
वहीं जाति जैसे जटिल पहलू की जनगणना में व्यावहारिक कठिनाई यह है कि एक ही जाति अलग-अलग राज्यों में अगड़ी और पिछड़ी अथवा ओबीसी एवं एससी दोनों हो सकती है। मसलन बिहार में वैश्य जातियां आमतौर पर ओबीसी हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में वे सामान्य श्रेणी में हैं। इसी तरह धोबी जाति उत्तरी राज्यों में एससी में आती है तो गुजरात-महाराष्ट्र में ओबीसी है। जाटों को लेकर भी ऐसी ही उलझन है।
राजनीति में जाति हालांकि पहले ही घुस चुकी है, परंतु जातिगत जनगणना के बाद यह और भी ज्यादा बढ़ेगी, इसमें कोई संदेह नहीं। यह अनायास नहीं कि जाति की राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पार्टियां इसके लिए बहुत मुखर हैं। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर केंद्र सरकार का रुख क्या होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन यह तय है कि जातिगत जनगणना का दुरुपयोग जाति की राजनीति करने वाली पार्टियां करेंगी।