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वड़ियां बांटने का मामला गंभीर हो गया है। खासकर राजनीतिक लाभ के लिए रेवड़ी बांटने या चुनाव जीतने के लिए लुभावने वादे करने पर सवाल खड़े हो गए हैं
रेवड़ियां बांटने का मामला गंभीर हो गया है। खासकर राजनीतिक लाभ के लिए रेवड़ी बांटने या चुनाव जीतने के लिए लुभावने वादे करने पर सवाल खड़े हो गए हैं। सवाल पहले भी थे, पर अब सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा इस पर विचार के लिए विशेषज्ञ समूह बनाने का एलान कर दिया है। समूह में चुनाव आयोग, नीति आयोग, वित्त आयोग, रिजर्व बैंक और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। इन विशेषज्ञों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाएगी कि राजनीतिक दल चुनाव से पहले मुफ्त बांटने के जो वादे करते हैं, उनके लागू होने का करदाताओं व अर्थव्यवस्था पर क्या असर होता है? इसका अध्ययन करें और इन पर नियंत्रण रखने के तरीके सुझाएं।
आजादी के 75 साल बाद यह बात सामने आना गंभीर भी है और चिंताजनक भी, पर साथ ही इससे उम्मीद भी जगती है। उम्मीद यह कि सुप्रीम कोर्ट एक समाज के तौर पर हम सबको जगाने में कामयाब होगा या कम से कम उसकी शुरुआत कर पाएगा, दरअसल जो सवाल इस विशेषज्ञ समूह के सामने रखे गए हैं, उन पर पूरे देश को सोचना चाहिए और उसका जवाब भी किसी ऐसे समूह, अदालत या आयोग के बजाय समाज के बीच से ही आना चाहिए। वरिष्ठ अर्थशास्त्री व बिजनेस स्टैंडर्ड के संपादक ए के भट्टाचार्य का मानना है कि इस विषय पर सिद्धांत रूप में चर्चा और विमर्श बहुत जरूरी है। सबसे पहले यह तय होना जरूरी है कि फ्रीबीज या रेवड़ियां क्या हैं, मुफ्तखोरी की परिभाषा क्या है, सुप्रीम कोर्ट ने भी अभी तक यह परिभाषा तय नहीं की है। क्या समाज के गरीब वर्ग को मुफ्त भोजन देना रेवड़ी बांटना कहलाएगा? क्या उज्ज्वला योजना में मिले रसोई गैस के सिलेंडर रेवड़ी कहला सकते हैं?
ऐसे तमाम उदाहरण हैं। आजादी के समय भारत की आबादी करीब 34 करोड़ थी। इनमें से अस्सी प्रतिशत लोगों की जिंदगी खेती के भरोसे चलती थी, पर देश में कुल साठ लाख टन गेहूं पैदा हो पाता था। अब पंजाब, मध्य प्रदेश और हरियाणा ही मिलकर इससे पांच गुना गेहूं सरकारी खरीद में देते हैं। अगर आजादी के फौरन बाद सरकार ने सिंचाई पर खर्च बढ़ाकर किसानों को सहारा न दिया होता, तो यह नहीं हो सकता था।
वह भी एक समय था, जब 1 मई, 1951 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को रेडियो पर जनता से अपील करनी पड़ी थी कि हफ्ते में एक दिन उपवास रखें और अनाज बचाएं। आजादी से पहले ही भारत में राशन और कंट्रोल की व्यवस्था लागू हो चुकी थी और यह काम शुरू करने वाले अंग्रेज अफसर का दावा था कि राशनिंग और कंट्रोल भारत में कभी खत्म नहीं होंगे, क्योंकि हालात सुधर ही नहीं सकते हैं। हालात सुधरे ही नहीं, बल्कि 75 साल में यहां तक पहुंच चुके हैं कि इतनी विशाल जनसंख्या के बावजूद भारत अब लाखों टन गेहूं निर्यात करने की स्थिति में भी है।
दरअसल, कुछ राजनीतिक दलों को यह समझ में आया कि जनता को कुछ देने का वादा उन्हें वोट दिला सकता है। शुरुआत आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव ने की थी, दो रुपये किलो चावल देने के वादे के साथ। उसके बाद तो जैसे सिलसिला चल निकला। तमिलनाडु में तो दोनों बडे़ दलों में होड़ ही लग गई। सस्ते अनाज, धोती, साड़ी वगैरह से शुरू हुआ सिलसिला प्रेशर कुकर, मिक्सी, सौ यूनिट बिजली फ्री, मंगलसूत्र, रंगीन टेलीविजन और स्कूटी खरीदने के लिए सब्सिडी तक पहुंच गया। कुछ ही समय की बात थी कि उत्तर भारत के राज्यों में भी साइकिल, स्कूटी, टैबलेट और लैपटॉप तक के वादे होने लगे। फिर दिल्ली की सरकार ने पानी और बिजली के बिलों में फ्री यूनिट का एलान करके एक नया मॉडल खड़ा कर दिया।
लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था या किसी राज्य की अर्थव्यवस्था सिर्फ इसलिए तो नहीं चलती कि उसे किसी पार्टी को चुनाव जिताना है। जो पार्टी जीतती है, उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह राज्य को और उसकी अर्थव्यवस्था को बेहतर तरीके से चलाए। यही वजह है कि चुनाव के पहले इस तरह के वादों पर सवाल उठाया जाता है, जिनका बोझ बाद में सरकारी खजाने को झेलना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में चुनाव आयोग पर भी सवाल उठाया है। सुप्रीम कोर्ट से पहले भी तमाम विश्लेषक इस बात पर हैरानी जताते रहे हैं कि आखिर चुनाव आयोग ऐसी घोषणाओं पर रोक क्यों नहीं लगाता?
अतीत में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, खासकर टी एन शेषन के कार्यकाल में और उसके बाद भी, जब चुनाव आयोग ने राजनीतिक पार्टियों के वादों पर ही नहीं, बल्कि सरकार के फैसलों तक पर रोक लगाई, लेकिन साल 2013 में तमिलनाडु के ऐसे चुनावी वादों के खिलाफ एक याचिका सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची थी, तब शीर्ष अदालत ने इसे भ्रष्ट आचरण नहीं माना था। शायद इसी वजह से चुनाव आयोग भी ऐसे वादों पर लगाम नहीं कस पाया। पंजाब पर तीन लाख करोड़ रुपये का कर्ज होते हुए भी आम आदमी पार्टी ने मुफ्त बिजली का वादा किया और सरकार बना ली। पैसा कहां से आएगा, यह सवाल अब उसे खुद से पूछना है।
हमें समझना होगा, सब्सिडी या सरकारी मदद दो तरह की होती है। जरूरी और गैर-जरूरी या वाजिब और गैर-वाजिब। जो जीवन के लिए जरूरी है, वह वाजिब सब्सिडी है। जिनसे केवल शौक पूरे होते हों, उन्हें गैर-वाजिब सब्सिडी कहना चाहिए। इसी लिहाज से गरीबों को अनाज, शिक्षा, इलाज, गैस सिलेंडर, शौचालय और घर बनवाने तक की मदद या रोजगार देनेवाली मनरेगा जैसी स्कीमों पर सवाल नहीं उठता। अब सुप्रीम कोर्ट भी चाहता है कि इस विषय के सारे पहलुओं पर चर्चा हो और फिर एक साफ परिभाषा सामने आए, जिससे इस सवाल का जवाब मिले कि कौन-सी मदद वाजिब है और कौन-सी नहीं।
पंद्रहवें वित्त आयोग के अध्यक्ष एन के सिंह ने एक लेख में आइंस्टीन को याद करते हुए लिखा था कि अक्सर आप उन्हीं चीजों की सबसे ज्यादा कीमत चुकाते हैं, जो आपको मुफ्त में मिल रही होती है। जाहिर है, सिर्फ चुनाव जीतने के लिए अगर पार्टियां आपको लॉलीपॉप दिखा रही हैं, तो उसकी कीमत अंतत: आपकी ही जेब से निकलने वाली है। अच्छा होगा, देश इस मसले पर गंभीरता से सोचे और ऐसा रास्ता निकाले, ताकि गरीबी और पिछड़ेपन से मुकाबले के नाम पर पार्टियां सिर्फ वोट बैंक ही न साधती रहें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Hindustan Opinion Column

Rani Sahu
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