सम्पादकीय

ग्लोबल वार्मिंग का असर: बढ़ता तापमान और पानी प्रबंधन की त्रासदी

Gulabi
12 Aug 2021 6:15 AM GMT
ग्लोबल वार्मिंग का असर: बढ़ता तापमान और पानी प्रबंधन की त्रासदी
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ग्लोबल वार्मिंग का असर

अनिल प्रकाश जोशी।

हाल ही में जारी इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट के मुताबिक, ग्लोबल वार्मिंग तेज हो रही है और इसके लिए स्पष्ट रूप से मानव जाति ही जिम्मेदार है। पृथ्वी की औसत सतह का तापमान, साल 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा और दुनिया भर में मौसम से जुड़ी भयंकर आपदाएं आएंगी। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अन्य महासागरों की तुलना में हिंद महासागर बहुत तेजी से गर्म हो रहा है, जो हमारे लिए चिंता की बात है।

आने वाले दशकों में दक्षिणी भारत में और अधिक गंभीर बारिश की आशंका के साथ, मौजूदा ग्लोबल वार्मिंग के रुझान से भारत में वार्षिक औसत वर्षा में वृद्धि होने की आशंका है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग पहले से ही समुद्र के जल स्तर में वृद्धि को तेज कर रही है और लू, सूखे, बाढ़ और तूफान जैसी चरम स्थिति पैदा कर रही है। इनमें और अधिक वृद्धि की आशंका है। रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई है कि 7,517 किलोमीटर समुद्र तट के साथ, भारत को समुद्रों के बढ़ते जल स्तर से भारी खतरों का सामना करना पड़ेगा। आईपीसीसी की रिपोर्ट में शामिल एक अध्ययन के अनुसार, अगर समुद्र का स्तर 50 सेमी भी बढ़ जाता है, तो छह भारतीय बंदरगाह शहरों-चेन्नई, कोच्चि, कोलकाता, मुंबई, सूरत और विशाखापत्तनम में 2.86 करोड़ लोग तटीय बाढ़ से प्रभावित होंगे।
भारत और दक्षिण एशिया में मानसून की स्थिति चरम हो सकती है और बारिश में बढ़ोतरी हो सकती है। आईपीसीसी की इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वायुमंडल को गर्म करने वाली गैसों का उत्सर्जन जिस तरह से जारी है, उसकी वजह से सिर्फ दो दशकों में ही तापमान की सीमाएं टूट चुकी हैं। लेकिन इसमें यह उम्मीद भी जताई गई है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी से इसे धीमा किया जा सकता है। अभी हिमालय के लोगों ने जिस तरह से अतिवृष्टि (भारी बारिश) का सामना किया है, आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट उसी की ओर इशारा करती है। दुनिया भर की करीब 5,000 वैज्ञानिक रिपोर्टों के अध्ययन के बाद तैयार की गई इस रिपोर्ट की चेतावनी को हल्के में नहीं लिया जा सकता। आज के हालात ही इस रिपोर्ट की प्रमाणिकता को बल देते हैं, लेकिन अगर ऐसा चलता रहा, तो 20 वर्षों के बाद क्या होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
जिस तरह से कार्बन उत्सर्जन जारी है और उस पर कोई लगाम भी प्रत्यक्ष रूप में दिखाई नहीं देती है, तो तय मानिए कि जैसे दुष्प्रभाव की इस रिपोर्ट में चर्चा की गई है, वे सौ फीसदी सही साबित हो सकते हैं। इससे कई तरह की तबाही होंगी। लगातार अतिवृष्टि, अत्यधिक गर्मी, कम सर्दियां, भारी बाढ़ जैसी घटनाओं का जोर रहेगा। इनके सामूहिक दुष्परिणाम में पृथ्वी नरक समान होगी। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुटेरस ने सभी देशों से इस रिपोर्ट के मद्देनजर अगले कदम उठाने का अनुरोध किया है। सीओपी-26 में इस बार यह रिपोर्ट ज्यादा चर्चा में रहेगी।
जाहिर है, मानवीय गतिविधियों के कारण जो जलवायु बदलाव का संकट पैदा हुआ, उसने मानव जाति के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। हमारी लापरवाही ने यह संकट पैदा किया है। अब पानी का ही उदाहरण ले लीजिए। पानी की कमी को लेकर जहां गर्मियों में त्राहि-त्राहि मचती है, वहीं बरसात में उसी पानी के चलते आई बाढ़ से जानमाल का भारी नुकसान होता है। लाखों लोग बेघर हो जाते हैं, तो खेती-बाड़ी भी बर्बाद हो जाती है। अब देश के संसाधन- प्रबंधन का इससे बड़ा और बुरा कौन-सा उदाहरण हो सकता है कि हम पानी बचाने की तहजीब व तरकीब से आज बहुत दूर जा चुके हैं। दुनिया भर में पीने के पानी का एक बड़ा संकट है।
अपने ही देश में नीति आयोग ने चेतावनी दी है कि आज यदि हम पानी का सही प्रबंधन नहीं कर सके, तो एक बड़े पानी संकट में घिर जाएंगे। वर्ष 2015 में देश के 13 बड़े राज्य पानी के भारी संकट से जूझ रहे थे, फिर गांवों से पलायन और रेल से पानी भेजने तथा तालाब और कुंओं में ताला लगने वाली बातें सामने आई थीं। हाल ही में चेन्नई से खबर आई कि वहां भूजल स्तर पाताल में पहुंच गया है। नदियां, कुएं, तालाब अगर इसी तरह मरते रहे, तो धीरे-धीरे हर इलाके से ऐसी ही खबरें आ सकती हैं। हमारे देश में हर वर्ष चार हजार अरब क्यूबिक मीटर वर्षा जल होता है, जिससे खेती के साथ-साथ हमारी प्यास भी आसानी से बुझ सकती है, क्योंकि भारत को हर साल तीन हजार अरब क्यूबिक मीटर पानी की ही जरूरत होती है। जाहिर है, पानी का संकट इसलिए पैदा होता है कि हम ठीक से उसका प्रबंधन नहीं कर पाते हैं।
आज पानी की दो समांतर व्यवस्थाएं हमारे बीच में पनप रही हैं। एक प्रकृति की देन, जिसमें तालाब, कुंए, नदी और धारें हैं और दूसरी व्यवस्था नल पाईप की है, जो कि शहरों की देन है। पहली व्यवस्था में संरक्षण का भाव था और दूसरी में पानी को मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाता है। पहली व्यवस्था पानी के महत्व व सीमा सिखाती थी, जबकि दूसरी विभिन्न तरह से पानी के उपभोग के रास्ते बताती रही है। आज पानी से जुड़ी हमारी दुर्गति के पीछे हमारे प्रबंधन की ही नाकामी है। हिमालय क्षेत्र में अतिवृष्टि से मात्र हिमालय के लोग ही परेशान नहीं होते, बल्कि परोक्ष-अपरोक्ष रूप में सभी इसकी चपेट में आते हैं।
आज हिमाचल, उत्तराखंड या फिर जम्मू-कश्मीर में अतिवृष्टि से जान-माल का भारी नुकसान हुआ है, तो उत्तर प्रदेश, पंजाब या बिहार भी इसी अतिवृष्टि के कारण बाढ़ के प्रकोप को झेल रहे हैं। अतिवृष्टि होगी, तो उसका प्रकोप सबको झेलना होगा, क्योंकि पानी को रोका नहीं जा सकता। बात सिर्फ पहाड़ या गांवों की नहीं है, अब शहर भी हर मानसून में भीषण बाढ़ की समस्या से जूझते हैं। मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर मानसून में तालाब की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं। देश-दुनिया में पानी का सही प्रबंधन करना ही पानी की सबसे बड़ी गुहार है। इसका उपाय हमारी परंपरा में है, जिन्हें हमने कभी समझा ही नहीं। हालांकि बहुत देर हो चुकी है, पर अब भी अगर हम चेत जाएं, तो जलवायु संकट से संबंधित सभी समस्याओं का हल निकाला जा सकता है।
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