सम्पादकीय

पाबंदियों का असर

Rani Sahu
11 Jan 2022 7:17 PM GMT
पाबंदियों का असर
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कोरोना संक्रमितों की तेजी से बढ़ती संख्या और ओमीक्रोन वेरिएंट के विस्तार से आशंकित राज्य सरकारें एक बार फिर आंशिक लॉकडाउन की ओर लौट चली हैं

कोरोना संक्रमितों की तेजी से बढ़ती संख्या और ओमीक्रोन वेरिएंट के विस्तार से आशंकित राज्य सरकारें एक बार फिर आंशिक लॉकडाउन की ओर लौट चली हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में तो कई पाबंदियां पहले से ही लागू हैं, पर दिल्ली सरकार ने अब और सख्ती बरतते हुए सभी निजी दफ्तरों को भौतिक रूप से बंद करने का फैसला किया है, रेस्तरां, होटलों में बैठकर खाने पर भी रोक लगा दी गई है। वैसे तो, एहतियात बरतने के किसी भी कदम का स्वागत ही किया जाएगा, लेकिन सरकारों को यह भी ख्याल रखना होगा कि उनके किसी कदम की अनिवार्यता और उसके असर से गहरी सामाजिक विसंगति न पैदा होने पाए। दफ्तरों में कर्मचारियों की उपस्थिति को पूरी तरह रोकने से कोविड संक्रमण को काबू में करने में कितना फर्क पड़ा, इसका कोई ठोस अध्ययन अब तक हमारे सामने नहीं आया है, अलबत्ता, ऐसे आंकड़े जरूर हमारे सामने हैं, जो बताते हैं कि पिछले लॉकडाउन ने कितने निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों को फिर से गरीबी की खाई में धकेल दिया और बेरोजगारी देश में किस स्तर पर पहुंची!

इसमें तो कोई दोराय हो ही नहीं सकती कि बात जान बचाने की हो, तब गरीबी की चिंता प्राथमिकता सूची में उसके बाद ही रहेगी, मगर विडंबना यह है कि गरीबी की देर तक अनदेखी भी अंतत: जानलेवा होती है। पिछले दो साल में देश का विशाल तबका आर्थिक तंगी झेलने को अभिशप्त रहा। यकीनन, सरकार ने अपनी कल्याणकारी भूमिका में गरीबों तक अनाज पहुंचाने के उपक्रम किए हैं, मगर जिंदगी की जरूरतें सिर्फ पेट भरने तक महदूद नहीं हैं। इसके आगे की मांगों के लिए धन चाहिए और जब आर्थिक गतिविधियां ठप होती हैं, तब सबसे ज्यादा मार दिहाड़ी मजदूरों या सबसे कम पगार वाले मुलाजिमों की जिंदगी पर पड़ती है। इसलिए सरकारों को उन्हें ध्यान में रखते हुए ही फैसले करने चाहिए।
पिछले एक साल में भारत ने टीकाकरण के मामले में एक लंबा सफर तय किया है, हालांकि विशाल आबादी के कारण इसे अब भी मीलों की दूरी तय करनी है। कहने की आवश्यकता नहीं कि नई लहर से निपटने के लिए देश के अस्पताल कहीं बेहतर स्थिति में होंगे। सरकार ने इस दौरान स्वास्थ्य क्षेत्र को अधिक आर्थिक संसाधन भी मुहैया कराए हैं। फिर सरकार के ही आंकडे़ बता रहे हैं कि इस बार अस्पताल में भर्ती कराने की आवश्यकता पांच से दस प्रतिशत मामलों में पड़ रही है, जबकि पिछली लहर में 20 से 23 प्रतिशत मरीजों को अस्पतालों की जरूरत पड़ी थी। ऐसे में, अधिक व्यावहारिक कदम उठाने की जरूरत है। केंद्र व राज्य सरकारों और महामारी नियंत्रण से जुड़ी सर्वोच्च नियामक संस्था को इस बात पर गौर करना चाहिए कि एहतियाती कदमों की रूपरेखा तय करते हुए उन वर्गों के आर्थिक हितों की रक्षा हो सके, जो रोजगार के लिहाज से सबसे नाजुक स्थिति में हैं। ऐसे लोगों में टीकाकरण को अधिक गति देने की दरकार है। एक तरफ, हम बूस्टर डोज देने की शुरुआत कर चुके हैं और दूसरी तरफ करोड़ों लोग अब भी पहले टीके से ही दूर हैं। डब्ल्यूएचओ बार-बार कह चुका है कि महामारी कल ही खत्म नहीं होने जा रही, तो फिर हमें भी इस लिहाज से एक दीर्घकालिक रणनीति अपनाने की जरूरत है, ताकि कोई भी फैसला किसी के साथ निर्मम होने का एहसास नहीं कराए।

हिन्दुस्तान

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