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- महंगाई की मार
Written by जनसत्ता: बढ़ती महंगाई को लेकर विपक्ष हमलावर है। मगर समस्या यह है कि सरकार महंगाई पर काबू पाने के लिए कोई उचित कदम उठाती नजर नहीं आ रही है। आए दिन न सिर्फ डीजल और पेट्रोल की कीमतों, बल्कि खाद्य तेलों में भी पिछले एक महीने के अंदर भारी उछाल देखने को मिला है। र्इंधन के दाम में बढ़ोतरी की मार सबसे अधिक गरीबों, मध्यवर्गीय किसानों, छोटे व्यापारियों पर पड़ती है।
घरेलू गैस एक हजार रुपए से पार पहुंच चुकी है, वहीं व्यावसायिक सिलेंडर की कीमत पिछले एक महीने में दो बार बढ़ कर सोलह सौ रुपए के आसपास है। व्यावसायिक सिलेंडर की कीमतों में निरंतर बढ़ोतरी के कारण खानपान की दुकान चलाने वालों के सामने संकट पैदा होता दिख रहा है। ऐसे में, समय रहते सरकार को इस पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, ताकि निम्नवर्ग को महंगाई की मार से बचाया जा सके।
अर्थव्यवस्था से जुड़ी वैश्विक संस्थाएं जब विकासशील देशों को नव-उदारवादी नीतियां अपनाने को प्रेरित कर रहे थीं, तब कहा जा रहा था कि गरीबी मिटेगी। रोजगार के अवसर पैदा होंगे। खुशहाली आएगी। मगर जिस तरह इन दिनों श्रीलंका और पाकिस्तान के आर्थिक हालात हैं। अस्थिरता का माहौल है दोनों देशों में, वे दूसरी कहानी बयान कर रहे हैं। वहां की जनता महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त है।
श्रीलंकाई जनता सड़कों पर उतर आई है। ऐसे देशों में लोकतंत्र की जड़ें गहरी होना दूर की बात है। लोकतंत्र की सफलता के लिए सामाजिक और आर्थिक स्थिरता के भी खासे मायने हैं। बहरहाल, नव-उदारवादी नीतियों से किन देशों को फायदा हुआ या हो रहा है? क्या इसे लेकर एक विमर्श की जरूरत नहीं है?
सवाल यह भी है कि भारत सहित ऐसे देशों के आम जन में सरकार द्वारा लिए गए आर्थिक फैसलों के पड़ने वाले दूरगामी असर के प्रति कितनी जागरूकता है, है भी या नहीं? अगर जागरूकता का अभाव है, तो इसका असर क्या पड़ेगा? दूसरे, लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह भी जरूरी है कि राजनीतिक अर्थशास्त्र या यों कहें कि चुनावी आर्थिक गणित को भी मतदाता समझे। दिक्कत है कि हमारे देश में राजनीतिक अर्थशास्त्र और सरकार के आर्थिक फैसलों पर बहस कम ही होती है। होगी भी कैसे, जब मतदाता की इसमें रुचि नहीं। आखिर बहस बाजार से परे कैसे हो सकती है और बाजार की दिशा हमेशा मांगोन्मुख होती है।