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- सरलता की शिक्षा
Written by जनसत्ता: समय के साथ शिक्षा का स्तर बढ़ा है और इसमें प्रतियोगिता का भाव आया है। जहां हमने शिक्षा को हंसी-खुशी अपनाया और अपने जीवन में शामिल कर लिया, वहीं दूसरी तरफ आज के विद्यार्थी शिक्षा को खुद के लिए बोझ बना लेते हैं। आज परीक्षा या शिक्षा के साथ विद्यार्थी सहज महसूस नहीं कर पाते हैं।
इसके कई कारण होते हैं या हो सकते हैं। कई बार विद्यार्थियों के स्तर पर और कई बार शिक्षण संस्थानों के स्तर पर। अगर इसके ठोस समाधान की बात करें तो इसके लिए शिक्षकों और शिक्षण संस्थानों को काम करना जरूरी है। शिक्षा और शिक्षण माहौल में कुछ अनुकूल परिवर्तन करके शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सकता है।
सबसे पहले आज की शिक्षा व्यवस्था में व्यावहारिक ज्ञान को अधिक महत्त्व देना चाहिए। पिछले कई वर्षों से भारत में उच्च स्तरीय शिक्षा सिद्धांत आधारित बन चुकी है, वहीं इसके व्यावहारिक पहलू पर गौर करने की जरूरत है। बच्चों को किताबी ज्ञान से बाहर नैतिक और मौलिक ज्ञान देना जरूरी है। किसी भी विद्यार्थी को एक अच्छा डाक्टर या अच्छा इंजीनियर बनाने से पहले उसे एक अच्छा इंसान बनाना जरूरी है। साथ ही विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम को इसी के आधार पर फिर से तय करना जरूरी है, जिसमें व्यावहारिक ज्ञान की अधिक बात हो।
दूसरी बात यह है कि विद्यार्थियों को खेल-खेल में और मस्ती में पढ़ाना चाहिए। जिस तरह छोटे कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाया जाता है, उसी प्रकार या उसी तरीके को आधार बनाकर उच्च स्तरीय शिक्षा भी देनी चाहिए। इससे बच्चों के लिए पढ़ने का सही और अनुकूल माहौल बनेगा। एक अन्य जरूरी बात यह है कि बच्चों के पाठ्यक्रम में या उसे पढ़ाने के तरीके में श्रव्य-दृश्य माध्यम का प्रयोग अधिक होना चाहिए। कई बार विद्यार्थी पठन-पाठन की प्रक्रिया से ऊब जाते हैं। ऐसे में आडियो-वीडियो तकनीक का सहारा लेकर पढ़ाने का काम करने से उनके लिए शिक्षा का एक अनुकूल माहौल तैयार हो पाएगा।
हालांकि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था काफी हद तक अनुकूल माहौल बनाने में सफल नजर आती है। मगर उपर्युक्त विचारों को शिक्षा व्यवस्था में शामिल करने से विद्यार्थियों के सकल विकास पर काम करना आसान हो जाएगा। इससे शिक्षा का भी अनुकूल माहौल स्थापित हो पाएगा और देश की अगली पीढ़ी अधिक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली बनेगी। फिर परीक्षा या शिक्षा को बोझ नहीं, बल्कि सरल और सुगम बनाया जा सकेगा।
कोई भी इंसान कभी अपनी जन्मभूमि, अपना देश तब तक नहीं त्यागता जब तक उसे यह न लगे कि अब यह देश रहने के लिए सुरक्षित नहीं रह गया है। जिस देश का आर्थिक भविष्य अंधकारमय हो, कानून व्यवस्था और नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा हो, वैसे देशों से ही लोगों का पलायन होता है। आजादी के बाद से पिछले आठ वर्षों में आखिर किन कारणों से, भारत की नागरिकता को त्यागने वालों की बाढ़ से आ गई है!
नरेंद्र मोदी सरकार के 2014 से चल रहे शासन के दौरान अब तक नौ लाख से अधिक लोगों ने अपनी भारतीय नागरिकता छोड़ दी है। पिछले पांच वर्षों में नागरिकता त्यागने वालों की संख्या में छत्तीस फीसद की बढ़ोतरी हुई है। इस साल 2022 के अक्तूबर माह तक ही करीब एक लाख चौरासी हजार लोग नागरिकता को त्याग कर दूसरे देशों में चले गए। आखिर क्यों सबसे बड़े लोकतंत्र और सोने की चिड़िया के रूप में प्रचारित देश से लोगों का मोहभंग होता जा रहा है? यह कितना सही है?
वर्तमान सरकार अक्सर बड़े-बड़े दावे करती रही है कि सबसे तेज गति से विकास हो रहा है। आर्थिक मंदी के कोई आसार नहीं है। औद्योगिक और व्यापारिक वातावरण काफी दोस्ताना तरीके से फल-फूल रहा है। व्यापारी जीएसटी से काफी खुश हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक। उत्तर भारत से लेकर उत्तर-पूर्व तक शांति व्याप्त हो चुका है। फिर भी लोग जा रहे हैं।
इसका मतलब यह हुआ कि सरकार की कथनी और यथार्थ में जमीन-आसमान का फर्क है। विचारधारा और राजनीति के क्षेत्र में देश बुरी तरह विभाजित हो चुका है। बहुसंख्यकवादी वर्चस्व को कायम करने की कोशिश हो रही है, जिसके चलते देश का अमन छिन्न-भिन्न हो गया है। ऐसे में लोगों का पलायन शायद एक स्वाभाविक नतीजा है।
सर्द मौसम में अक्सर कोहरा छाया रहता है और दृश्यता के अभाव में आए दिन सड़कों पर वाहन और पटरिया पर रेलें भिड़ती रहती हैं। अधिक धुंध और कोहरे के कारण अक्सर रेलें स्थगित होती रहती है, जिससे यातायात में बाधा के साथ ही यात्रियों को बेवजह परेशान होना पड़ता है। हाल ही में कोहरे की वजह से देश के विभिन्न मार्गों पर चलने वाली 246 रेलें रद्द की गई है।
यह सब कुछ नया नहीं है, बल्कि दशकों से ऐसा होता आया है, पर इसके समाधान के लिए ठोस इंतजाम नहीं हो पाए हैं। माना कि सड़कों और रेलों के मार्ग लंबे हैं और उन्हें पूरी तरह सुरक्षित नहीं बनाया जा सकता, लेकिन सौर ऊर्जा इसका बेहतर विकल्प है। अगर प्रयास करके कोहरा जनित क्षेत्रों को प्राथमिकता के साथ सुरक्षित बना दिया जाए तो जानमाल के नुकसान के साथ ही हादसों को भी रोका जा सकेगा।
इस संक्रमण काल में वैश्विक मंदी उफान पर है। यही कारण है कि कर्मचारियों को छंटनी के रूप में सजा भुगतनी पड़ रही है, जबकि वे इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। छंटनी किसी भी समस्या का हल नहीं है। सरकार को इस संदर्भ में हस्तक्षेप करना चाहिए और ऐसे पक्के कानून बनाने चाहिए, जो कंपनी और कर्मचारियों, दोनों के हित में हो।
अभी के आर्थिक मंदी के दौर में छंटनी नहीं, बल्कि वैकल्पिक उपाय करके और आर्थिक सहायता उपलब्ध करके समस्या का निदान तलाशना चाहिए। छंटनी से बेरोजगारी फैलने का डर रहता है। इसलिए यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस तरह की नीतियां लागू करें, ताकि समाज में किसी के अंदर अविश्वास की भावना न फैले।