सम्पादकीय

शिक्षा सर्कस नहीं

Gulabi
12 Aug 2021 6:32 AM GMT
शिक्षा सर्कस नहीं
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कोरोना काल के मसौदे जिंदा रहेंगे, जब तक लड़ाई सरीखा इम्तिहान जारी है

बाय दिव्यहिमांचल। कोरोना काल के मसौदे जिंदा रहेंगे, जब तक लड़ाई सरीखा इम्तिहान जारी है। बरसात में महामारी के बादल फिर अपने आंकड़ों के सत्य को उस मोड़ पर ले आए कि हिमाचल मंत्रिमंडल लगातार बंदिशों के तसमे कस रहा है। कुछ विराम फिर चुने जा रहे हैं और 22 तक स्कूलों में ताले लटका कर संदेश गहरा होता जा रहा है। हैरानी यह कि सरकार की कठोरता का पैगाम हमेशा स्कूलों पर चस्पां होता है, तो सवाल यह उठता है कि क्या कोरोना की लौटती लहरों में सबसे कसूरवार लम्हे शिक्षा की व्यवस्था में छिपे हैं। हमारा मानना है कि छात्रों के साथ, मनोवैज्ञानिक तौर पर ऐसे फैसलों का प्रतिकूल असर होता है और यह भी कि शिक्षा विभाग एक सर्कस की तरह काम कर रहा है। कोरोना की लहरों को स्कूलों पर चस्पां करने की बजाय यह देखा जाए कि कौन सा समुदाय या समूह अधिक बिगड़ा है। राजनीतिक समारोहों की घोषणाएं, आमंत्रण पत्र तथा लहजा अपने आप में भयावह है। शादी समारोहों की रौनकें अपने निरंकुश अंदाज में बेपरवाह हैं, तो अंतिम संस्कार में रिश्तों की पड़ताल फिर से लंबी हो गई है। राजनीतिक ताजपोशियों का जोश अगर धाम में परोसा जाएगा, तो फिर इसे मानवीय भूल कौन कहेगा।

बहरहाल स्कूल, परिवहन व्यवस्था तथा बाजार का रुख अब चेतावनियों से भर रहा है। पर्यटकों को अनुशासित करना कठिन दायित्व का निर्वहन है और इसलिए गगरेट बैरियर पर हुई आजमाइश कई प्रश्नों को जन्म देती है। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में दो छात्र संगठनों के बीच कम से कम पढ़ाई का सिलसिला तो नहीं चला, बल्कि छात्र सियासत का यह चेहरा खुद ही मुजरिम घोषित हो जाता है। कोविड के मुजरिम हर छूट का आनंद लेते इतने उदासीन हो जाते हैं कि मास्क पहनना अब पुलिस की आंख में भी नहीं चुभता। दुकानदार खुद मास्क के बिना ग्राहक का स्वागत कर रहा हो, तो बाजार की भीड़ में कोरोना तो सवार होगा ही। हम मान सकते हैं कि सरकार के लिए बच्चों की हिफाजत सर्वोपरि है, लेकिन कोरोना की तमाम बंदिशों के बीच राजनीतिक, बाजार और सामुदायिक व्यवहार में अनुशासन की कमी पर सख्त होना पड़ेगा। बच्चों को केवल स्कूल का पहरा बचाएगा या समाज की लापरवाही से बार-बार लौट रहा कोरोना, कहीं अधिक खबरदार कर रहा है। दूसरी ओर सरकार ने कल विधानसभा में अपने फैसले को उद्धृत करते हुए यह स्पष्ट किया है कि अब किसी भी सूरत चाय के बागान नहीं बिक पाएंगे।
इससे पहले सरकार की अनुमति से चाय के बागानों का लैंड यूज बदलता रहा या इनकी बिक्री का द्वार खुलता रहा है। पालमपुर व धर्मशाला से सटे इलाकों की कई आवासीय कालोनियां इन्हीं बागीचों की जड़ें खोदकर बनी हैं और यह कार्य सियासी प्रभाव से होता रहा है। कुछ विवादित सौदे आज भी अदालतों या सरकार की फाइलों में दबे हैं, तो क्या सरकार कोई दस्तावेज लाकर सारी स्थिति स्पष्ट करेगी। लैंड सीलिंग एक्ट से छूट प्राप्त धनाड्य वर्ग ने सेब बागीचों से अपनी हैसियत बढ़ाई, तो चाय बागानों को बेच कर भी कमोबेश धनोपार्जन का जरिया बने लोग अभिजात्य माने गए। लैंड सीलिंग एक्ट ने समाज, कृषि, आर्थिकी व राजनीति को जिस तरह बदला, उससे सत्ता के बीच एक प्रभावी वर्ग पैदा हुआ। बागीचे बेचने या खरीदने वालों का ब्यौरा सामने आए तो मालूम हो जाएगा कि इस खेल में कैसे वसंत काटी जा रही थी। बहरहाल सरकार अगर यह चाहती है कि चाय के बागीचे न बिकें, तो चाय उत्पादन का समर्थन वित्तीय प्रोत्साहन के साथ हो और इसका क्षेत्र बढ़ाने के लिए सार्वजनिक भूमि का अधिकतम इस्तेमाल किया जाए। निचले क्षेत्रों में चाय उत्पादन के लिए सही पाई गई भूमि के ऊपर फिलवक्त जंगलों का अधिकार है, अतः वन नीति के तहत चाय, कॉफी, हर्बल प्लांट्स व जंगली फलोत्पादन को बल मिले, तो बाजार बनेगा। दुर्भाग्यवश बढ़ती मजदूरी, घटते उत्पादन और मौसम की प्रतिकूलता के कारण चाय बागान बेचना श्रेयस्कर हो रहा था। सरकार को चाहिए कि चाय के क्षेत्र में सीधा हस्तक्षेप करके इस उद्योग का प्रभावशाली ढंग से समर्थन करे।

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