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- शिक्षा, पर्यावरण और...
स्विट्जरलैंड स्थित इंस्टिट्यूट आफ मैनेजमेंट डेवेलपमेंट द्वारा विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के प्रतिस्पर्धा सूचकांक में भारत की रैंक 2016 में 41 से फिसल कर 2020 में 43 रह गई है। इसी के समानांतर वर्ल्ड इकानामिक फोरम द्वारा बनाए गए प्रतिस्पर्धा सूचकांक में 2018 में भारत की रैंक 58 थी जो कि 2019 में फिसलकर 68 रह गई है। इस प्रकार विश्व के 2 प्रमुख प्रतिस्पर्धा मानकों में हम फिसल रहे हैं। यदि हमारी यही चाल रही तो देश को 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था को बनाने का सपना निश्चित रूप से अधूरा रह जाएगा। हमारे फिसलने के दो प्रमुख कारण दिखते हैं। पहला कारण शिक्षा का है। इंस्टिट्यूट आफ मैनेजमेंट डेवेलपमेंट के अनुसार भारत का शिक्षा तंत्र 64 देशों में 59वें रैंक पर था। हम लगभग सबसे नीचे थे। पर्यावरण की रैंक में हम 64 देशों में अंतिम पायदान यानी 64वें रैंक पर थे। विश्वगुरु का सपना देखने वाले देश के लिए यह शोभनीय नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में हमारा खराब प्रदर्शन चिंता का विषय है क्योंकि रिजर्व बैंक आफ इंडिया के अनुसार वर्ष 2019-20 में हमने अपनी आय यानी जीडीपी का 3.3 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया था। यद्यपि वैश्विक स्तर पर शिक्षा पर 6 प्रतिशत खर्च को उचित माना जाता है, फिर भी 3.3 प्रतिशत उतना कमजोर नहीं है। यह रकम 2019-20 में 651 हजार करोड़ रुपए की विशाल राशि बन जाती है। ऐसा समझें कि 6 माह में हमारी जनता जितना जीएसटी अदा करती है और केन्द्र एवं राज्य सरकारों को जितना राजस्व मिलता है उससे अधिक खर्च इन सरकारों द्वारा शिक्षा पर किया जा रहा है। फिर भी, जैसा कि ऊपर बताया गया है कि शिक्षा में हमारी रैंक 64 देशों में 59 है, जो कि शर्मनाक है। जाहिर है कि शिक्षा पर किए जा रहे खर्च में कहीं न कहीं विसंगति है।