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- शिक्षित, लेकिन कमजोर...
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| विजय कुमार चौधरी शिक्षा का इतिहास मानव समाज एवं सभ्यता के विकास के इतिहास का सहचर रहा है। उसी तरह शुरू से ही शिक्षा एवं समाज का नाता धर्म से भी रहा है। सभी धर्मों में शिक्षा को सर्वोत्कृष्ट स्थान दिया गया है। गीता में कहा गया है न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते अर्थात इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र अन्य कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अभिप्राय विद्या से है और विद्या सीधे रूप से शिक्षा से जुड़ी है। इस्लाम के संस्थापक हजरत मुहम्मद ने कहा था, 'मां की गोद से लहद तक ( यानी जन्म से मृत्यु तक) इल्म हासिल करो।' ईसाई मिशनरियों द्वारा पूरी दुनिया में शिक्षण संस्थान स्थापित कर शिक्षा के साथ धर्म-प्रचार का कार्य जगजाहिर है। शिक्षा को मानव समाज के विकास की धुरी माना गया है। विकास के सभी प्रयासों का लक्ष्य मनुष्य के जीवन स्तर में सुधार होता है और समाज के किसी भी क्षेत्र में विकास की रीढ़ शिक्षा ही होती है। इसके अलावा, शिक्षा के प्रत्यय पर प्राचीन काल से ही चिंतकों व विचारकों ने अलग-अलग विचार रखे हैं तथा अपने ढंग से इसे परिभाषित करने के प्रयास किए हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में महात्मा गांधी ने शिक्षा की सबसे उपयुक्त परिभाषा देते हुए कहा था, शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और मनुष्य के मन, शरीर और आत्मा के उच्चतम विकास से है। गांधी धर्म-मर्मज्ञ के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे। उनके अनुसार, बच्चे के शारीरिक विकास के लिए जैसे मां का दूध जरूरी है, उसी तरह मनुष्य की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए शिक्षा आवश्यक है। वे साक्षरता और शिक्षा को बिल्कुल अलग मानते थे। उनके अनुसार, साक्षरता न तो शिक्षा का अंत है और न प्रारंभ। यह केवल मनुष्य को शिक्षित बनाने का एक साधन है। उन्होंने शिक्षा से मनुष्य के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास एवं चरित्र निर्माण का तात्पर्य दिया।