सम्पादकीय

Editorial: ‘जातिवाद’ का अनर्गल अलाप

Gulabi Jagat
28 Aug 2024 12:35 PM GMT
Editorial: ‘जातिवाद’ का अनर्गल अलाप
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By: divyahimachal
मिस इंडिया, बॉलीवुड, ओलंपिक खिलाड़ी एवं क्रिकेटर, उद्योगपति, मीडिया और न्यायपालिका आदि में आरक्षण लागू नहीं होता। इन क्षेत्रों का सरकार और आरक्षण से क्या लेना-देना है? वे अधिकतर गैर-सरकारी क्षेत्र हैं। नौकरशाही और सरकारी न्यायपालिका में आरक्षण कुछ हद तक लागू होता है। ‘मिस इंडिया’ सौंदर्य, फैशन और बौद्धिकता के संगम का खुला मंच है। यदि दलित, आदिवासी, पिछड़े ऐसी प्रतियोगिताओं में शामिल होना चाहते हैं, तो एक दिन ‘मिस इंडिया’ ही नहीं, ‘मिस वल्र्ड’ और ‘मिस यूनिवर्स’ के ताज भी पहन सकती हैं।
रीता फारिया पहली
भारतीय और एशियाई महिला हैं, जिन्होंने 1966 में ‘मिस वल्र्ड’ का खिताब जीता था। वह सवर्ण नहीं थीं, बल्कि घोर अल्पसंख्यक ‘पारसी’ समुदाय की थीं। इस समुदाय की आबादी आज भी एक लाख से कम है। किसी ने आज तक सवाल नहीं किया कि रीता ने ऐसी अभूतपूर्व और अंतरराष्ट्रीय सफलता कैसे अर्जित की? ओलंपिक पदक विजेता हॉकी टीम में अक्सर सिख और जाट समुदाय के खिलाड़ी ज्यादा खेलते हैं। वे अल्पसंख्यक और ओबीसी हैं। ओडिशा के आदिवासी खिलाडिय़ों ने भी ओलंपिक और अंतरराष्ट्रीय हॉकी खेली है। दुनिया उनके बेमिसाल खेल को जानती है। उन्हें दलित, ओबीसी, आदिवासी के आधार पर टीम में शामिल नहीं किया गया। वे सक्षम, बेजोड़ खिलाड़ी रहे हैं, लिहाजा भारत का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। बॉलीवुड रचनात्मक चेहरों का विशाल और व्यापक समंदर है। रचनात्मक प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है। किसी को आरक्षण के जरिए अभिनेता, निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, कैमरामैन आदि नहीं बनाया जा सकता। अलबत्ता लगातार अभ्यास और प्रशिक्षण से प्रतिभाएं निखर भी उठती हैं।
एनएसडी और पूना फिल्म इंस्टीट्यूट इसके विरले उदाहरण हैं। बॉलीवुड के समंदर में दलित, पिछड़े, आदिवासी भी होंगे! राहुल गांधी कैसे दावा कर सकते हैं कि वहां इन जातियों के चेहरे नहीं हैं? मीडिया का हुनर और रचनात्मक कौशल भी भिन्न है। हर आदमी यह काम नहीं कर सकता। जोखिमों से खेलना पड़ता है और एक अच्छा लेखक भी बुनियादी कुशलता है। हम असंख्य दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों को जानते हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय मीडिया में बुलंदियां छुई हैं। उनमें कुछ संपादक भी रहे हैं। उद्योगपति ऐसे क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें औद्योगिक साम्राज्य विरासत में मिले हैं और उन्होंने अपने ज्ञान, मार्केटिंग, मेहनत, निवेश से अपने साम्राज्य का विस्तार किया है। कइयों ने निजी प्रयास से औद्योगिक कंपनियां स्थापित की हैं। उद्योग निजी क्षेत्र है, जिसमें आबादी के अनुपात के आधार पर आरक्षण नहीं है और न ही दिया जा सकता है। दलित, पिछड़े, आदिवासी जो प्रगति कर चुके हैं और शहरों में अच्छी नौकरी करते हैं, वे शेयर बाजार में अच्छा-खासा निवेश करते हैं और लाखों रुपए कमा रहे हैं। राहुल गांधी की ‘रिसर्च टीम’ ने उन्हें ऐसे तथ्य नहीं बताए। सवाल है कि क्या किसी को आरक्षण के आधार पर उद्योगपति या किसान तक भी बनाया जा सकता है? कदापि नहीं। दरअसल कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव पर आजकल ‘जातीय जनगणना’ का जुनून सवार है। वे सिर्फ 70 फीसदी या 90 फीसदी आबादी की भागीदारी की बात कर सकते हैं। कांग्रेस ने तो करीब 55 साल देश पर शासन किया है। तब उसने ‘जातीय भागीदारी’ को सुनिश्चित क्यों नहीं किया? राहुल और अखिलेश से ही पूछ लिया जाए कि यदि देश में ‘जातीय जनगणना’ करवा ली जाए, तो आप उसे क्रियान्वित कैसे करेंगे? आजकल ‘जातीय अनर्गल अलाप’ करना खासकर उन दोनों की राजनीति है। यह सोच और नीति निजी क्षेत्र या निजी प्रतिभा, निजी निवेश और अनुसंधान पर लागू कैसे हो सकती है?
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