सम्पादकीय

Editorial: सुपर ह्यूमन मशीनों के हाथों में न जाए शिक्षा की बागडोर

Gulabi Jagat
16 Nov 2024 9:58 AM GMT
Editorial: सुपर ह्यूमन मशीनों के हाथों में न जाए शिक्षा की बागडोर
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Vijay Garg: हाल-फिलहाल की कोई भी तकनीक इतनी उत्तेजना पैदा नहीं कर सकी है, जितनी जेनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने पैदा की है। यह कल्पना की जा सकती है कि एआई में इस तरह के आश्चर्यजनक विकास के लिए जिम्मेदार लोग इसके भविष्य को लेकर सही ही कहते रहे हैं कि जल्द ही यह इंसानों से ज्यादा बुद्धिमान हो जाएगी। हमें यह अनुमान भी मान लेना चाहिए कि यह 'बुद्धिमत्ता' उन व्यवहारों और कार्यों को सक्षम बनाएगी, जो उन इंसानी क्षमताओं का नतीजा होती हैं, जिनको हम मूलतः मानवीय मानते हैं और उसी आधार पर फैसले लेते हैं। इसे हम सुपर ह्यूमन एआई (एसएचएआई) कह सकते हैं। मगर सवाल है कि शिक्षा में इसकी मदद किस तरह ली जा सकती है?
ऐसे सुपर ह्यूमन रोबोट शिक्षा में चार प्रकार की भूमिकाएं निभा सकते हैं- छात्र - सहायक के रूप में, शिक्षक - सहायक के रूप में, छात्रों के लिए शिक्षक के रूप में और शिक्षा प्रबंधन संबंधी कार्यों में सहायक के रूप में (इस पर हम यहां बात नहीं करेंगे)। सुपर ह्यूमन तक पहुंचने से पहले ही एआई का शिक्षा में अत्यंत सावधानी से इस्तेमाल होना चाहिए। नीति यही होनी चाहिए- शिक्षा में इसका इस्तेमाल आखिरी विकल्प के रूप में हो और ऐसा तभी किया जाए, जब सुनिश्चित हो जाए कि इससे कोई खतरा नहीं है। चार परस्पर जुड़े कारणों की वजह से हमें यह नीति बनानी चाहिए। पहला कारण है, खोखला करना। अगर सुपर ह्यूमन एआई सहायक होगी, तो न शिक्षकों को और न ही छात्रों को सोचने की जरूरत पड़ेगी। यदि आप किसी क्षमता का उपयोग करना बंद कर देते हैं, तो उसको खो देते हैं या वह विकसित नहीं हो पाती। चूंकि, सुपर ह्यूमन एआई में इंसानों जैसी सोचने की क्षमता होगी, इसलिए इसके आने से ज्ञान संबंधी खोखलापन निश्चित तौर पर दिखेगा। हालांकि, लगभग सभी मानवीय क्षमताओं को लेकर यह डर बना रहेगा।
दूसरा, फॉर्म फैक्टर। यह एक तकनीकी शब्द है। इसका मतलब है कि किसी को कोई चीज किस भौतिक रूप में चाहिए- बक्सानुमा, छोटा, मुलायम या अन्य रूपों में। फोन के जरिये हमसे बातचीत करने वाले एआई का फॉर्म फैक्टर एआई रोबोट से अलग होता है, जो हमें मार भी सकता है। शिक्षा से जुड़ी हमारी इच्छाएं और सीखने की मानवीय प्रक्रियाएं कुछ ऐसी होती हैं कि फोन या कंप्यूटर वाले फॉर्म फैक्टर शिक्षा में सुपर ह्यूमन एआई का इस्तेमाल सीमित कर देंगे, क्योंकि प्रभावी शिक्षा के लिए छात्र की शारीरिक व मानसिक दशा को समझना, उसका ध्यान आकर्षित करना आदि आवश्यक होता है और ऐसा बच्चों के समूह में किया जाना चाहिए, क्योंकि हम चाहते हैं कि वे सामाजिक बनें। इन सबका मतलब है कि सुपर ह्यूमन एआई को मौजूदा कक्षा जैसे किसी परिवेश में काम करना होगा। कप्यूटर बॉक्स या स्क्रीन के अंदर फंसे सुपर ह्यूमन एआई की अपनी सीमाएं होंगी ।
तीसरा है, नियंत्रण। यदि सुपर- ह्यूमन एआई वाकई उसी रूप में हो, जैसा हम सोच रहे हैं, तो क्या हम इसे अपने निजी और सामूहिक जीवन पर नियंत्रण करने की अनुमति देना पसंद करेंगे? निस्संदेह, सुपर ह्यूमन एआई नियंत्रण करना चाहेगा, चाहे शिक्षक के रूप में या सहायक के रूप में। क्या हमें इस रूप में आगे बढ़ाना चाहिए? याद रखिए, जो शिक्षा को नियंत्रित करता है, वह हमें भी काबू में करता है। चौथा है, विस्तार। यह सबसे मौजूं वजह है। प्रौद्योगिकी मानवीय व्यसनों व विकृतियों को बढ़ाती है । यह असमानताओं को मजबूत बनाती है। इसमें सबसे अच्छी व उपयोगी चीजें हमेशा अमीरों के हाथों में होती है, जबकि गरीबों को सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए इसका प्रतीकात्मक लाभ मिलता है।
शिक्षा में एआई का कोई भी लाभ अलग-अलग तरह से अमीरों के हिस्से में जाएगा, फिर चाहे वह व्यक्ति के तौर पर हो या राष्ट्र के तौर पर और इसका प्रतिकूल नतीजा सबसे पहले व सामान्य तौर पर वंचितों को ही भुगतना होगा, जिसके बाद पूरी मानवता को क्या हम शिक्षा को ऐसी किसी तकनीक के हवाले कर देना चाहते हैं, जो भले इंसानों जैसी लगे, लेकिन इंसान न हो और अधिक ताकतवर हो; जो छात्रों के दिमाग को खोखला कर दे और हमें नियंत्रित करने की स्थिति में हो; जो असमानता व संघर्ष को बढ़ा दे ? इनका जवाब हमें पता ही है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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