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Editorial: भारत के लोगों ने पिछले कई सालों से पाश्चात्य अंधानुकरण के कारण न केवल अपने जीवन, बल्कि कृषि को भी अंधकारमय बना दिया है। इस मशीनी युग में खाद्यान्न उत्पादन लिए इस्तेमाल हो रहे रासायनिक खाद और कीटनाशकों से खाद्य सामग्री जहरीली होने लगी है। देश में कृषि को बढ़ावा देने के नाम पर काफी समय से इस्तेमाल हो रहे रसायनों के चलते धरती अब अपनी उर्वरा शक्ति भी खोने लगी है। यह हकीकत है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत की कृषि संस्कृति को तबाह करने पर तुली हुई हालांकि धरती । रसायनों से मुक्ति दिलाने और देश के नागरिकों को शुद्ध खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिहाज से शून्य लागत में प्राकृतिक खेती एक बड़ा विकल्प बनकर उभर रही है। सरकार भी इस दिशा में तेजी से काम कर रही है। उसका मानना है कि प्राकृतिक खेती से सबसे ज्यादा फायदा देश के अस्सी फीसद छोटे किसानों को होगा। ऐसे छोटे किसान, जिनके पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है। इनमें से अधिकांश किसानों का काफी खर्च रासायनिक उर्वरकों पर होता है। अगर किसान प्राकृतिक खेती की तरफ मुड़ेंगे तो उनकी स्थिति और बेहतर होगी।
केंद्र सरकार ने इस वर्ष के बजट में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। उसने एलान किया है कि अगले दो वर्षों में एक करोड़ किसानों को इसके लिए सहायता दी जाएगी और एक हजार 'बायो रिसर्च सेंटर' स्थापित किए जाएंगे। देश के अधिकांश कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि प्राकृतिक खेती में लागत कम होती है, लेकिन पैदावार को लेकर अब भी किसान और कृषि वैज्ञानिकों को संदेह है। गौरतलब है कि आज ज्यादा से ज्यादा उत्पादन के लिए कृषि क्षेत्र में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग किया जा रहा है। इससे | शहर स से लेकर गांव तक कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है। नहीं है। फलतः आम जनता के साथ-साथ किसा किसानों को भी कई दुष्परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं। इससे किसान का खर्च और कर्ज दोनों बढ़ रहा है, क्योंकि किसानों को रासायनिक खाद, कीटनाशक और हाइब्रीड बीज महंगे दाम पर खरीदने पड़ते हैं। कई बार किसान बैंक कर्ज के जाल में फंसने से आत्महत्या तक कर लेते हैं ऐसी कई घटनाएं सामने आ रही हैं। इतना नहीं, रासायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग से मिट्टी प्रदूषित हो रही हानिकारक कीटों की की वृद्धि हो रही है। विभिन्न प्रकार के लाभकारी जीवों जैसे-मछली, केंचुआ स दूसरे कीट-पतंगों की कमी हो रही है। रासायनिक खाद और कीटनाशक प्रभावित खानपान से कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो रहे हैं। इसलिए बदलते वक्त और खेती की लागत ज्यादा होने की वजह से अब किसानों का रुख धीरे-धीरे प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ रहा है।
वर्तमान में कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 13.6 फीसद है। यह क्षेत्र देश की 60 फीसद आबादी को प्रत्यक्ष तौर पर रोजगार मुहैया कराता है। लेकिन देशभर में किसानों की वर्तमान सामाजिक आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। उत्पादन और मूल्य प्राप्ति दोनों में अनिश्चितता की वजह से किसान उच्च लागत वाली कृषि के दुश्चक्र में फंस गया है। किसानों की पैदावार का आधा हिस्सा उनके उर्वरक और कीटनाशक में ही चला जाता है। इस तरह किसान आज लाचार और विवश है। वह भ्रमित है। परिस्थितियां उसे लालच की ओर धकेल रही हैं। उसे नहीं मालूम कि उसके लिए सही क्या है? अधिकतर कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि रासायनिक खेती की तुलना में प्राकृतिक खेती में फसल की उपज कम होती है, फिर केंद्र सरकार प्राकृतिक खेती के समर्थन में क्यों है। दरअसल, सरकार को प्राकृतिक खेती के जरिए खाद अनुदान, मिट्टी की घटती उर्वरा शक्ति और जल संकट जैसी चुनौतियों से निपटने की उम्मीद है। सरकार का मानना है कि देश के वैज्ञानिक हरित क्रांति और रसायन आधारित कृषि पर अनुसंधान करते रहे हैं और इसी के आधार पर किसान खेती करते आए हैं। उसमें अब बदलाव लाने की जरूरत है, क्योंकि रासायनिक खाद से खेती करने से किसान और देश दोनों को आर्थिक नुकसान हो रहा है। एक अनुमान के के मुताबिक हमारे देश में देश में पांच करोड़ रासायनिक खादों का आयात होता है, जिसके लिए अनुदान एक लाख करोड़ रुपए है। इससे दोगुने से ज्यादा पैसा बाहर के देशों को रासायनिक उर्वरकों की खरीदारी के लिए जा रहा है।
यह भी कहा जा रहा है कि प्राकृतिक खेती काफी सरल और फायदेमंद है। विशेषज्ञों के अनुसार प्राकृतिक विधि से खेती करने में किसानों को खेती करने के लिए बाहर से कोई भी | चीज खरीदने की जरूरत नहीं है। खेती में सही तकनीक के उपयोग से भूमि वातावरण से फसलों में पोषक तत्त्वों की जरूरत पूरी की जा सकती है। इस विधि से खेती करने वाले किसानों को बाजार से किसी प्रकार की खाद और कीटनाशक रसायन खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। फसलों की सिंचाई के लिए पानी और बिजली भी मौजूदा खेती-बाड़ी की तुलना में दस फीसद 'खर्च होती है। सबसे बड़ी बात, इससे पर्यावरण को जरा भी नुकसान नहीं पहुंचता।
कहा जा सकता है कि प्राकृतिक खेती अपनाने से लागत कम हो जाती है। हमारे देश में महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक आदि राज्यों में बड़े पैमाने पर किसान इस खेती को अपना चुके हैं। पंजाब में भी कई साल पहले इसकी शुरुआत हो चुकी है। हां, एक दिक्कत जरूर है कि इस तरह की प्राकृतिक खेती वर्ष भर देखभाल मांगती है । शुरू में यह ज्यादा मेहनत भी मांगती है। लेकिन इससे गांव में रोजगार के अवसर बढ़ते है। बेरोजगारी कम होती है। पर दूर शहर में रह कर खेती कराने वाले या अंशकालिक किसानों को थोड़ा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। केवल नौकरी के भरोसे प्राकृतिक खेती करने वाले के लिए उतनी अनुकूल नहीं है, जितनी वर्तमान की रासायनिक खेती।
बहरहाल, प्राकृतिक खेती छोटे और सीमांत किसानों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है, क्योंकि फिलहाल खेती के लिए रसायनों आदि की भारी कीमत चुकाने के लिए किसानों को कर्ज लेना पड़ता है और कर्ज का यह बोझ बढ़ता ही रहा है। किसान रासायनिक खाद और कीटनाशक के प्रयोग से न केवल कर्ज में डूब रहा है, बल्कि खेतों में जहर की खेती भी कर रहे हैं। अनाज और सब्जियों के माध्यम से यही जहर हमारे शरीर में जाता है, जिससे आज कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां लगातार फैल रही हैं। इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाला किसान कर्ज के झंझट से भी मुक्त रहता है, वहीं उन्नत कृषि उत्पादों से आम जनजीवन का स्वास्थ्य भी सुरक्षित रहता है। अगर हमें अपने परिवार और समाज को स्वस्थ रखना है, तो हमें प्राकृतिक खेती की ओर लौटना होगा। यह एक बड़ा, लेकिन जरूरी काम है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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Gulabi Jagat
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