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- Editorial: जलवायु पर...
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Vijay Garg: हाल ही में बाकू में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में गहन वार्ता के बाद, जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने की दिशा में कोई ठोस निर्णय न हो पाना दुर्भाग्यपूर्ण है। सम्मेलन के अंत में जो हासिल हुआ, उसने यह साबित हुआ कि वादों और वास्तविकता के बीच की खाई आज भी विकसित और विकासशील देशों के बीच बहुत गहरी है। सम्मेलन में जरूर कुछ बड़ी और अहम घोषणाएं हुईं, लेकिन उनसे उम्मीद की जाने वाली तात्कालिक और ठोस कार्रवाई का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। दशकों से चले आ रहे सम्मेलनों के बावजूद जलवायु संकट दूर करने के लिए सभी देशों की हिस्सेदारी और जिम्मेदारी तय नहीं हो पा रही है। यही वजह काप-29 सम्मेलन में विकासशील देशों की चिंता और नाराजगी भारत ने आवाज दी है। उसने सम्मेलन में वैश्विक आईना दक्षिण देशों का नेतृत्व करके अमीर देशों को दिखाया बहरहाल, बाकू में आयोजित सम्मेलन में लंबी जद्दोजहद के सबसे बड़ी घोषणा 'न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल' रूप में सामने आई। जिसमें अमीर देश 2035 तक 300 बिलियन डालर हर साल योगदान करने के लक्ष्य पर सहमत हुए, लेकिन यह रकम गरीब देशों को बेहद कम लगी और इस पर सवाल उठाया पैंतालीस गरीब देशों के समूह ने इसने काप - 29 के नतीजे को 'विश्वासघात' बताया।
उनका कहना था कि यह समझौता न तो वैश्विक ताप पर लगाम लगा सकता है और न ही कमजोर देशों की मदद कर सकता है। ऐसे में यह अहम सवाल है कि अब दस साल बाद क्या स्थिति बनेगी, यह किसे मालूम है। फिर यह वादा वे देश निभाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। जबकि अनिवार्यता तत्काल कदम उठाने की है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणाम अब हम सबके सामने हैं। साफ दिख भी रहे हैं। हैरत है कि यह 2009 में 46 2009 4 44 किए गए 100 बिलियन डालर के लक्ष्य की जगह लेता है, जो अब तक कभी पूरा नहीं हुआ। दरअसल, विकसित और विकासशील देशों के बीच यह मतभेद रहा कि जलवायु संकट में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले अमीर देशों को कितनी मदद देनी चाहिए। वहीं जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को खत्म करने का वादा, जो पिछले साल दुबई में काप- 28 में किया गया था, इस बार के समझौते से हटा दिया गया। इससे साबित होता है कि विकसित देश किस हद तक की लापरवाही कर रहे हैं।
हालांकि, भारत और चीन ने इस लक्ष्य को अस्वीकार्य बताते हुए 500 बिलियन सालाना सार्वजनिक वित्त की मांग की। भारत का कहना है कि विकसित देशों ने अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारियों से बचने के लिए इस लक्ष्य को 'स्वैच्छिक योगदान' और बहुपक्षीय विकास बैंकों की फंडिंग पर निर्भर बना दिया है। अमीर देश अपनी इस दलील पर अब भी अड़े हुए हैं कि इस कोष में विकासशील देश भी योगदान करें। जाहिर है, पैसा न देने का एक बहाना उन्होंने तैयार कर रखा है। सम्मेलन के दौरान कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठे, लेकिन उनमें से अधिकांश केवल चर्चा के स्तर पर ही सीमित रह गए। ‘बाकू प्रेसीडेंसीज कंटीन्युइटी कोएलिशन फार क्लाइमेट एंड हेल्थ' की स्थापना एक सकारात्मक कदम है, लेकिन इस पहल का असर तभी होगा, जब इसे पर्याप्त धन और संसाधन मुहैया कराया जाए। कहना गलत न होगा कि विकसित देशों की ओर से आयोजित अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन दिखावा बन कर रह गया है।
काप- 29 में भारत एक मजबूत और प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में सामने आया। उसने 'कामन बट डिफरेंशिएटेड रेस्पांसिबिलिटीज' के सिद्धांत पर जोर दिया, जो विकासशील देशों के साथ न्यायसंगत व्यवहार सुनिश्चित करता है। भारत का यह रुख दूसरे विकासशील और छोटे द्वीपीय देशों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना। भारत ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह सतही और असमान समाधानों को स्वीकार नहीं करेगा। काप 29 ने बता दिया है कि वादे करना आसान है, लेकिन उन्हें निभाना कठिन । जलवायु वित्त का नया लक्ष्य कागज पर अच्छा दिखता है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। हकीकत है कि धनी देशों के रवैए के कारण विकासशील देश खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं। अपने विकास की कीमत पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने पर सहमत हुए गरीब मुल्क इसके मुकाबले के के लिए अमीर देशों की मदद की तरफ देख रहे हैं। लेकिन अमीर और गरीब मुल्कों के बीच अविश्वास का वातावरण दो दशक बाद भी बना हुआ है। निश्चित रूप से यह स्थिति भविष्य में वैश्विक ताप से निपटने के लिए साझा प्रयासों की संभावना को ही खत्म करेगी |
जलवायु परिवर्तन आज पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है। इसको लेकर कई तरह की नकारात्मक भविष्यवाणियां भी की जा चुकी हैं। ज्यादातर ऐसे शोर पश्चिमी देशों से ही उठते रहे हैं, जिन्होंने अपने विकास के लिए प्रकृति के विरुद्ध न जाने कितने ही कदम उठाए हैं और लगातार उठा ही रहे हैं। आज भी कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन करने वाले देशों में 70 फीसद हिस्सा पश्चिमी देशों का ही है जो विकास की अंधी दौड़ में लगे हैं। जाहिर है, आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि विकसित देश ही हैं। आज जो देश विकसित होने का तमगा लगा कर घूम रहे हैं, हैं, वही देश धरती की वर्तमान स्थिति के लिए दोषी हैं। जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में वैसे तो तमाम प्रतिबद्धताएं जताई जाती हैं, लेकिन उन पर पूरी तरह अमल न होना, हमेशा ही गंभीर चिंता का विषय रहा है। यह सत्य है कि जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया के सामने आज एक बड़ी चुनौती भारत सहित पूरी दुनिया का उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। कार्बन उत्सर्जन में अपनी सीमित भूमिका होने के बावजूद इसे रोकने के लिए भारत अपनी ओर काम कर रहा है, लेकिन इस मामले में विकसित देशों में अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की प्रवृत्ति आम रही है। बेशक हुआ, पर समस्या को ही बेशक चाकू में जलवायु संकट पर गंभीर की गई। यदि जलवायु वित्त पैकरार को समझने की ईमानदार कोशिश नहीं मंथन गहराई पर सहमति बनती, तो इससे जुड़े मुख्य मुद्दों के समाधान की राह खुलती, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया। यह निर्विवाद सत्य कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए विकासशील देशों को अपने विकास को धीमा करना पड़ेगा।
अब काप - 30, ब्राजील में आयोजित होगा। जाहिर है उससे काफी उम्मीदें हैं। जरूरी है कि भविष्य के सम्मेलनों में खोखले वादों की जगह परिवर्तन कोई दूर का संकट नहीं है, यह एक ठोस कदम उठाए जाएं जलती है, जो हर दिन विकराल होती जा रही। गंभीर और वर्तमान है। काप 29 ने जलवायु संकट को हल करने की दिशा में कुछ कदम जरूर उठाए, लेकिन यह दुनिया को याद दिलाता है कि असली काम अभी बाकी है। यह वक्त है जब दुनिया को साहसिक, न्यायसंगत और तत्काल कार्रवाई करनी होगी, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित और स्थायी भविष्य मिल सके।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
Gulabi Jagat
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