सम्पादकीय

Editorial: मुखौटे वाली भीड़

Gulabi Jagat
21 Oct 2024 1:14 PM GMT
Editorial: मुखौटे वाली भीड़
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Editorial: अलग-अलग शहरों, कस्बों और गांवों में निर्मित हो रही एक तरह की भीड़ एक विचित्र सामूहिक नशे की शिकार लगती है। यह आवेशित भीड़ कई बार अश्लीलता की हद तक तेज बजते गानों पर उन्मादी शोर में डूबी दिखती है, जो रोटी-रोजगार के सवाल को भूल चुकी दिखती है । अलग-अलग ‘ब्रांड' के रहनुमाओं के पीछे भाग रही यह भीड़ पुस्तकालय और विद्यालय से बेखबर दिखती है। नवनिर्मित और दिनोंदिन बढ़ती जा रही इस भीड़ की फसल को देख अलग-अलग रूप धरे धार्मिक और राजनीतिक व्यापारी प्रसन्न होते जा रहे हैं। कई बार कुछ रहनुमा जैसे लोग अलग-अलग वेश में भीड़ में उत्साह का संचार करते दिखते हैं। धार्मिक-राजनीतिक आकाओं के नए-नए फरमान इंसान को सिर्फ इंसान नहीं बनने देना चाहते हैं। लोगों के होठ तो सूख ही रहे हैं, आंखों का पानी भी सूखता जा रहा है।
इंसान और इंसानियत से ज्यादा और भी कुछ महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है, जिसे शायद नहीं होना चाहिए था । ये सवाल गौण हैं कि कौन पढ़ने देना चाहता है... क्यों पढ़ने दिया जाए... इतनी हिम्मत बची है जो पढ़ोगे, आदि ! किताब की दुकानें सिमटती जा रही हैं। महामारी के पहले लगभग सभी स्टेशनों पर किताब की समृद्ध दुकानें थीं। वे आज बंद हो रही हैं या उन्हें समेट दिया गया है। किताब की जगहों पर चिप्स, कुरकुरे, बिस्किट पैर पसार चुके हैं। पुस्तकालयों को बर्बाद होते देखा जा सकता है। विद्यालयों में बच्चे किताबों का इंतजार कर रहे हैं। युवा पीढ़ी डीजे की ऊंची धुनों पर सिर्फ थिरक रही है। सरकारी नौकरी के लिए पागल, लेकिन निजीकरण का समर्थक मध्यवर्ग ऊंचे दाम देकर अपने बच्चों को दड़बेनुमा कमरों में रटने की मशीन बनाने पर आमादा है। वाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया मंचों से ज्ञान प्राप्त करती आधुनिक संतानें बर्बाद होते संस्थानों के दौर में संदेश आगे भेजने और ' रील' बनाने की मशीन बनती जा रही हैं। पठनीयता में गिरावट से सबको लाभ है। बाजार के जाल को समझना आसान नहीं है।
मतदाता से समर्थक में तब्दील हुई भीड़ में सरकारों से सवाल पूछने की हिम्मत ही कहां बची है! हम दुर्भाग्य में धकेली हुई भीड़ हैं। इस बनाई हुई भीड़ को गुमराह करके दूसरे रास्तों पर हांक दिया जाता है। सरकारी अस्पतालों की तस्वीरें अलग कहानी बयान करती हैं। यों भी तस्वीरें एक मुखौटा लगाए रहती हैं। बदहाल सरकारी अस्पताल भीड़ से भरे जा रहे हैं। प्रतिदिन दर्द से कराहते लोग थोड़ी-सी बची जिंदगी से लंबी लाइनों में लग जाते हैं। हाथ में पर्ची लिए एक कक्ष से दूसरे में भागते हुए लोग थक कर जिंदगी को कोसते हुए रिश्तों से भी कमजोर किसी दीवार के सहारे बैठ जाते हैं। सुदूर अंचल से आए हुए लोग 'ओपीडी' की न बढ़ने वाली भीड़ में से गार्ड से बस एक बार डाक्टर साहब को दिखाने की मन्नत मांगते हैं। जांच कक्ष में जिंदगी के हैरतअंगेज कारनामों से मुखातिब कराती मशीनें जैसे अब तक किए गए कर्मों का हिसाब लिख रही होती हैं। अब तक निगले गए निवालों से अहम दवाइयों की लाइन में जेब को टटोलती कांपती कलाइयां जैसे जिंदगी के अवसान के आखिरी पल की गवाह बनती हैं।
इस भीड़ का हिस्सा बन जिंदगी को और जी लेने की जद्दोजहद में जब हम संघर्ष कर रहे होते हैं, तभी हमें जिंदगी की नश्वरता की वास्तविक ध्वनि कानों में सुनाई पड़ती है। लगता है, देवताओं इंसानों की प्रार्थना कबूल करने से इनकार कर दिया है ! गांव अपनी बेबसी के साथ हताशा के स्वर में जैसे बुदबुदा रहे हैं । टेलीविजन के अनुसार राय बनाता शहरी वर्ग मानो एक आयाम समझ और हताशा का शिकार होकर अब घुटन को विवश है। गांव और शहर के कुछ रास्ते ऐसे हैं कि इन रास्तों पर कोई नहीं आता, बस भूख आती है। भूख हर रोज आती है, क्योंकि भूख का कोई रविवार नहीं है। समाज का एक वर्ग ऐसा भी है कि भूख और सब्र उसके पेट का परीक्षण प्रतिदिन करते हैं।
हम स्वार्थ की भाषा और लाभ की आवाज के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सुन पा रहे हैं। अगर हम बाहर की यात्रा को भूलकर एक बार अंदर की यात्रा करें तो सत्य कितने खराब रूप में प्रकट होता है ! हमारे सामाजिक, पारिवारिक सभी रिश्ते कितने खोखले होते जा रहे हैं! कितनी अर्थहीन संरचनाओं के बीच जीने के लिए विवश हैं हम लोग । एक व्यक्ति के रूप में व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं रह गया है। एक इंसान के रूप में इंसान का कोई महत्त्व नहीं है। हमारे छोटे-छोटे अहंकार और हित, किसी की आंखों के बड़े ख्वाबों को निर्दयतापूर्वक कुचल रहे हैं। मनुष्य होने का जो मूल है- आवेग, भावनाएं, रुदन, मुस्कुराहट, वही रौंद दी जा रही हैं। हम किसी न किसी प्रकार के नशे के आगोश में हैं। क्या करना है, क्या करना चाहिए और क्या कर रहे हैं।
स्वार्थ इतनी हावी है कि इंसान धीरे धीरे उपभोग की वस्तु बनता जा रहा है। हमें वस्तुओं का इस्तेमाल करना और रिश्तों को सहेजना चाहिए था, लेकिन हम रिश्तों का इस्तेमाल कर रहे हैं और वस्तुओं को सहेज रहे हैं। सच की आंच पर किसी भी रिश्ते को एक बार परख कर देखें, हल्की-सी तपिश पर पिघल कर अपने वास्तविक और विकृत स्वरूप में सामने आता है। सबके अपने तर्क, कसौटी और जीने के पैमाने हैं जो स्वाभाविक है, पर एक इंसान बनने की प्राथमिक पैमाने पर हम विफल हो रहे हैं। सजग होकर देखने पर सब कुछ कितना पारदर्शी तरीके से दिखता है। कितने खराब स्वरूप में चीजें क्रमिक रूप से विकसित और वैध होती जा रही हैं। एक इंसान के रूप में हमारे लिए यह सब स्वीकार कर पाना कठिन है, पर ठहर कर सोचने पर यह प्रश्न हमारा पीछा जरूर करता है कि क्या हम सचमुच इंसान बनने की प्रक्रिया में भी हैं ?
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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