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- सम्पादकीय: भेदभाव की...
टीके के मुद्दे पर संकीर्ण राजनीति का ताजा उदाहरण ब्रिटेन सरकार का है जो भारत में कोविशील्ड का टीके लगे लोगों को टीका लगा नहीं मान रही है.
दुनिया कोरोना महामारी के संकट से जूझ रही है और विकसित देश कोरोना वैक्सीन की जमाखोरी में जुटे हैं, भारत ने वैश्विक महामारी से मुकाबले के लिये प्रतिबद्धता जताते हुए अगले माह से फिर से 'टीका मैत्री' मुहिम शुरू करने की घोषणा की है। इसके अंतर्गत भारत अपने पड़ोसियों व दुनिया के गरीब मुल्कों को संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम के तहत कोविड निरोधक वैक्सीन उपलब्ध करायेगा। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि देश केवल अतिरिक्त टीकों का निर्यात करेगा। सरकार का कहना है कि 'टीका मैत्री' कार्यक्रम के तहत टीका निर्यात जरूर करेंगे, लेकिन अपने नागरिकों का टीकाकरण हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है। सरकार कह रही है कि यह मुहिम भारतीय दर्शन 'वसुधैव कुटुम्बकम' के ध्येय के अनुरूप ही चलायी जायेगी। सरकार का दावा है कि अगले माह तीस करोड़ व आगामी तीन माहों में सौ करोड़ से अधिक टीकों की डोज उपलब्ध होगी। निस्संदेह भारत के दुनिया में सबसे बड़े टीका उत्पादक देश होने के कारण इन लक्ष्यों को पाना कठिन नहीं होगा। इसमें दो राय नहीं कि भारत की इस प्रतिबद्धता से जहां दुनिया में कोविड संक्रमण से लड़ाई आसान होगी, वहीं विश्व भारत के इस योगदान को भी स्वीकार करेगा। दरअसल, देश में कोरोना संकट की दूसरी लहर की भयावहता के बाद सरकार ने अप्रैल में टीकों के निर्यात पर रोक लगा दी थी क्योंकि देशवासी उसकी प्राथमिकता सूची में थे। लेकिन यह विडंबना ही है कि दुनिया की महाशक्तियों व विकसित देशों को जैसी प्रतिबद्धता कोरोना के खिलाफ लड़ाई में दिखानी चाहिए थी, वैसी देखने को नहीं मिली। उनकी प्राथमिकता अपने नागरिकों को टीका लगाने और उसकी जमाखोरी ही रही। इतना ही नहीं टीकाकरण के मुद्दे पर संकीर्ण राजनीति भी की जाती रही है, जिसमें दूसरे देशों के नागरिकों को अपने यहां आने से रोकने के उपक्रम किये जाते रहे हैं। ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन की कारगुजारियों पर भी सवाल उठे हैं।