सम्पादकीय

Editorial: आरक्षण पर ‘भारत बंद’

Gulabi Jagat
23 Aug 2024 5:26 PM GMT
Editorial: आरक्षण पर ‘भारत बंद’
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By: divyahimachal
आरक्षण पर ‘भारत बंद’ का आह्वान…! सफल रहा या बेअसर साबित हुआ, यह अलग मुद्दा है, लेकिन दलित-आदिवासी संगठनों ने ‘भारत बंद’ का आह्वान क्यों किया? यह आश्चर्यजनक लगा। क्या ऐसी नकारात्मक और विध्वंसक राजनीति भी बाबा अंबेडकर की देन है? क्या सर्वोच्च अदालत की 7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ का भी सामूहिक, सड़किया विरोध करना अंबेडकर की सीख है? क्या बाबा के संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में यह उल्लेख नहीं है कि आरक्षण का उप वर्गीकरण किया जा सकता है? क्या संविधान पीठ ने विभिन्न अनुच्छेदों का हवाला देते हुए यह स्पष्ट नहीं किया है कि कोटे के भीतर कोटे की व्यवस्था भी संवैधानिक है? क्या प्रधानमंत्री मोदी ने संसद के परिसर में सांसदों के एक समूह को सार्वजनिक तौर पर आश्वस्त नहीं किया था कि आरक्षण में उप वर्गीकरण के न्यायिक फैसले को स्वीकार नहीं किया जाएगा? संविधान पीठ के फैसलेे का किसी सरकार द्वारा ऐसा विरोध भी आश्चर्यजनक है। अलबत्ता संसद के पास ऐसी संवैधानिक शक्तियां हैं कि वह संविधान पीठ के फैसले को खारिज कर सकती है। दलित और आदिवासी संगठनों को क्या आशंका थी कि उन्होंने ‘भारत बंद’ का आह्वान किया और देश के कुछ हिस्सों में अराजकता फैलाई। उनका आरक्षण सुनिश्चित है। संविधान पीठ ने जिस क्रीमीलेयर की बात कही थी, प्रधानमंत्री ने फिलहाल उसे भी अस्वीकार कर दिया है। दलित और आदिवासियों को सुनिश्चित कौन कर सकता है? क्या कांग्रेस, सपा, राजद, बसपा सरीखी राजनीतिक पार्टियां दलितों और आदिवासियों को बुनियादी तौर पर विश्वास दिला सकती हैं? बहरहाल नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की सुविधाएं मिल रही हैं। यह उनका मौलिक अधिकार-सा बन गया है। यह दीगर है कि भारत सरकार के कुछ शीर्ष और उच्च पदों पर उनकी भागीदारी 4 फीसदी और 4.5 फीसदी है।
यह परंपरागत विसंगतियों का ही नतीजा है। 2014 में भारतीय सत्ता में बड़ा परिवर्तन हुआ था और प्रधानमंत्री मोदी की सरकार शासन में आई थी। सत्ता के 10 सालों में आरक्षण-विरोधी अथवा दलित, आदिवासी-विरोधी एक भी निर्णय सरकार ने नहीं लिया। पहली बार देश के राष्ट्रपति पद पर आदिवासी महिला को आसीन कराया गया। अभी 45 उच्च पदों पर जो सीधी नियुक्तियां की जानी थी, उस फैसले को भी वापस ले लिया गया। विपक्ष कुछ भी व्याख्या करता रहे। बेशक भाजपा की तुलना ‘विषैले सांप’ से करता रहे। सवाल है कि दलित, आदिवासी संगठनों को कोई ठोस शिकायत है अथवा वे राजनीतिक नेरेटिव से संचालित किए जा रहे हैं? जो इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं, जिन्हें लगता है कि वे आरक्षण, संविधान बचाने के मुद्दे पर मोदी और भाजपा का राजनीतिक विस्तार रोक सकते हैं, वे ‘भारत बंद’ के दौरान कहां थे? सडक़ पर मायावती, अखिलेश यादव, राहुल गांधी और तेजस्वी यादव सरीखे नेता दिखाई नहीं दिए, जो आजकल दलित, आदिवासियों और पिछड़ों के पैरोकार बने हैं। यदि संगठनों को संविधान पीठ के फैसले पर आपत्ति थी, तो वे सर्वोच्च अदालत में पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकते थे। संविधान पीठ कोई राजनीतिक संगठन नहीं है, जिसके खिलाफ ‘भारत बंद’ के जरिए विरोध-प्रदर्शन किया जाए। वह न्याय का सर्वोच्च और अंतिम मंच है। मोदी सरकार ने ऐसा कुछ किया नहीं है कि ‘भारत बंद’ का आह्वान किया जाता।
पंजाब और हरियाणा में कुछ दलित जातियां ऐसी हैं, जिन्होंने ‘भारत बंद’ का समर्थन नहीं किया। वाल्मीकि और मजहबी सिख आदि आरक्षण के उप वर्गीकरण के पक्षधर हैं। दलित और आदिवासियों को एहसास होना चाहिए कि उच्च जातियां उनके आरक्षित पदों को नहीं हड़प रही हैं, बल्कि ऐसे पद भरे ही नहीं जा रहे हैं। आरक्षण में भी कुछ जातियों का वर्चस्व है, जो कमोबेश 50 फीसदी तक आरक्षण वसूल कर लेती हैं और छोटी, हाशिए पर पड़ी जातियां खाली हाथ ही रहती हैं। यह व्यवस्था का ही दोष है। यदि दिल्ली विश्वविद्यालय में 100 साल के कालखंड में मुसलमान सहित उच्च जातियों के चेहरे ही कुलपति बने। दलित, आदिवासी को अवसर ही नहीं मिला। यही हाल बीएचयू, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का रहा है। ‘भारत बंद’ का मौजूदा मुद्दा ही नहीं था। यदि आरक्षित जातियां अन्य पिछड़ी और वंचित जातियों को आरक्षण के जरिए सम्पन्न और शिक्षित नहीं करना चाहतीं, तो यह दलितों और आदिवासियों के ही अंतर्विरोध हैं। वैसे इस बात का क्या औचित्य है कि आरक्षण के कारण जो दलित और आदिवासी संपन्न हो चुके हैं, उन्हें इस दायरे से बाहर न किया जाए।
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