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देश चुनावी मोड में है। पार्टियां खुद को औरों से बेहतर साबित करना चाहती हैं
डॉ. वीरेंद्र मिश्र
देश चुनावी मोड में है। पार्टियां खुद को औरों से बेहतर साबित करना चाहती हैं। परम्परागत वोटरों को अपने पक्ष में करने के लिए हरसम्भव तरीके आजमाए जा रहे हैं। चूंकि चुनावों में बहुत कुछ दांव पर होता है, इसलिए उनमें बहुत तनावपूर्ण संघर्ष होता है। विचारधाराओं का टकराव होता है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि किसी भी पार्टी को चुनाव जीतने के लिए वे उपाय नहीं आजमाने चाहिए, जो देश की सेहत के लिए नुकसानदेह साबित हों। क्योंकि नेशन फर्स्ट ही हमारा स्लोगन है।
दुर्भाग्य से चुनाव जीतने पर मुफ्त उपहार देने के वादे एक ऐसी ही प्रवृत्ति है, जो देश के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती। एक जनहित याचिका पर सुनवाई करने के दौरान सर्वोच्च अदालत ने इस विषय में चिंता जताई थी और कहा था कि चुनावों में मुफ्त उपहार देने के वादे गम्भीर समस्या है। वरिष्ठ अधिकारियों ने इस बारे में प्रधानमंत्री को अवगत कराया, क्योंकि प्रधानमंत्री की छवि ऐसे नेता की है, जो निर्णय लेने में संकोच नहीं करते।
उन्होंने उन्हें सचेत किया कि मतदाताओं को लुभाने के लिए राज्य सरकारों द्वारा किए जाने वाले वादे अंतत: वित्तीय संकट की ही स्थिति निर्मित करेंगे। इस मामले में चुनाव आयोग ने असमर्थता जाहिर की है। अब गेंद राजनीतिक दलों के पाले में है, लेकिन वे नकार के मोड में हैं। वे जानते हैं कि यह प्रवृत्ति हानिकारक है, इससे संसाधनों की क्षति होती है और सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचता है, फिर भी वे इसे समाप्त नहीं करना चाहते।
वोटरों को भी इसके दूरगामी नतीजे नहीं पता, जो उनके लिए ही बुरे साबित होंगे। ये मुफ्त उपहार- जो फ्रीबी कहलाते हैं- सामाजिक-आर्थिक राहत राशि के रूप में दिए जाते हैं, जबकि यह भ्रामक है। आर्थिक राहत तभी सम्भव है, जब समाज के सबसे निचले तबके के व्यक्तियों को भी सामाजिक-आर्थिक विकास प्रक्रिया में उत्पादक के तौर पर सहभागी बनाए जाए। नागरिकों में गैर-उत्पादकता को प्रोत्साहित करने से तो नुकसान ही होंगे।
लेकिन फ्रीबी बांटने की लोकलुभावन नीति के पीछे चैरिटी का वह रूप है, जो कार्यक्षम लोगों को निष्क्रिय बनने को प्रेरित करता है और इस तरह से देश पर बोझ बढ़ाता ही है। यह अव्यावहारिक नीति ऊपर से चाहे जितनी भावनात्मक मालूम होती हो, लेकिन अंत में उन्हीं लोगों के लिए नुकसानदेह साबित होती है, जिनके लिए उसे लागू किया गया था। महामारी ने हमें बहुत सारी चीजें सिखाई हैं, और उनमें से एक यह है कि जब रोजगारों पर संकट पैदा होता है तो सबसे पहली चोट गरीबों पर ही पड़ती है।
अर्थव्यवस्था में गिरावट आती है तो स्वास्थ्य-सेवाएं प्रभावित हुए बिना नहीं रह पातीं। जरा श्रीलंका और वेनेजुएला जैसे देशों का उदाहरण देख लें। वास्तव में श्रीलंका आज एक केस स्टडी बन चुका है। वहां भी चुनावों के दौरान गैर-व्यावहारिक लोकलुभावन घोषणाएं की गई थीं। उन्हीं को पूरा करने के फेर में आज श्रीलंका की यह हालत हो गई है। जनता से टैक्स में छूट के वादे किए गए, जो पूरे नहीं किए जा सकते थे। भारी सब्सिडी देने, कर्ज और बिल माफ करने के सपने दिखाए गए। यह सब समानता के नाम पर किया गया।
जबकि इस तरह की चीजें उलटे सामाजिक न्याय के आदर्श को नुकसान पहुंचाती हैं। वेनेजुएला जैसा देश, जिसके पास अकूत तेल-सम्पदा है, वेलफेयर प्रोग्राम के नाम पर की गई शाहखर्ची से दिवालिया होने के कगार पर आ गया है।
ये सच है कि महिलाओं और बच्चों के सशक्तीकरण, स्वास्थ्य सुरक्षा, रोजगार-वृद्धि, वरिष्ठजनों के कल्याण आदि के लिए चलाए जाने वाले कार्यक्रम सराहनीय हैं, लेकिन उनमें भी हितग्राही को रचनात्मक रूप से सहभागी बनाते हुए उसके सशक्तीकरण पर जोर दिया जाना चाहिए, अन्यथा राज्यसत्ता के संसाधन अनुत्पादक व्ययों में खर्च हो जाएंगे। एक सच्चे नेता को यह अहसास होना चाहिए कि अदूरदर्शितापूर्ण कदमों से राष्ट्र-निर्माण सम्भव नहीं है।
श्रीलंका और वेनेजुएला जैसे देशों का उदाहरण देख लें। वास्तव में श्रीलंका आज एक केस स्टडी बन चुका है। वहां भी चुनावों के दौरान गैर-व्यावहारिक लोकलुभावन घोषणाएं की गई थीं। उन्हीं को पूरा करने के फेर में आज यह हालत हो गई है।

Rani Sahu
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