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By: divyahimachal
बरसात की विभीषिका में भी हिमाचल की प्राथमिकताओं में विषय सरकार को अपने आगोश में समेट कर रखना चाहते हैं। हमने हिमाचल को सदा घोषणाओं के इंतजार में खड़ा कर दिया और यही चाहते हैं कि मंत्रिमंडल जब बैठे तो सिर्फ खुशखबरी दे या राष्ट्रीय-राज्यीय पर्व मनाएं तो इसके फलक पर सरकारी खजाना कुर्बान हो जाए। पिछले दशकों में सरकारों के फैसलों पर गौर करें, तो कमोबेश हर बार मंत्रिमंडल अपनी लिखावट में वही शब्द दोहराता है यानी सरकारी सेवा की शर्तों में नरमी, वेतन या मानदेय में बढ़ोतरी तथा जनता के लिए शुल्क में कटौतियां ही सामने आती हैं। क्या हिमाचल बिगड़े हुए सालों का हिसाब इतना बुरा है कि इन्हें दिनों के गिनती में सुधारते-सुधारते सदियां बीत जाएंगी। जिस प्रदेश में जनता का कर अदायगी से कोई लेना-देना नहीं, जहां हर साल घाटे के बजट का उत्पादन कर्जदार बना रहा हो, वहां आपदा के दौरान भी सत्ता के फैसलों में अगर दिहाड़ी व मानदेय ही बढ़ रहा हो, वहां स्वावलंबन के सरोकार शायद ही कभी पैदा होंगे। हमने दो हिमाचल बना दिए हैं। एक सरकारी हिमाचल जहां हर सत्ता को उदारता से कर्ज लेकर शाबाशी बटोरनी है। सरकारों के पास केवल सरकारी कर्मचारी हैं और उनकी वेतन विसंगतियों के चक्रव्यूह से निकलने के लिए केवल पांच साल होते हैं। हमने इस चक्रव्यूह से न तो सरकारों को और न ही प्रदेश को बाहर निकलते हुए देखा है। इसके अलावा सामाजिक सुरक्षा की अति व्यस्तता में हमने समाज को जरूर इस हालात में पहुंचा दिया कि जहां राज्य सिर्फ कर्ज भरता रहेगा।
एक दूसरा हिमाचल नागरिकों की निजी आर्थिक क्षमता, उपभोक्ता क्षमता और निजी क्षेत्र के प्रदर्शन से साबित कर रहा है कि भविष्य कैसे रूपांतरित हो सकता है। राष्ट्रीय उपभोक्ता मामलों के सर्वेक्षण बताते हैं कि हिमाचल के लोग अपनी व्यय क्षमता से किस तरह बड़े राज्यों को चकमा दे रहे हैं। निजी क्षेत्र में स्वरोजगार ढूंढ रहे युवाओं ने विकल्प तलाश लिए हैं, फिर भी सत्ता के फैसलों का भ्रम या मोहजाल उन्हें भटका रहा है, क्योंकि सरकारी नौकरी को यहां हमेशा तरकारी की तरह पेश किया जाता है। सरकारों को पहले हिमाचल में खुद को तसदीक करना होता है, इसलिए कर्मचारियों या पेंशनधारकों के करीब साढ़े चार लाख लोगों को संवारते-संवारते गैर सरकारी क्षेत्र के पच्चीस लाख लोगों की अनदेखी हो जाती है। ऐसे में आपदा के इस दौर में सरकार के फैसलों में इक नई फाइल खुलनी चाहिए। वर्षों से सरकार से वांछित पा रहे नागरिक क्या यह नहीं समझ सकते कि आपदा की इस घड़ी में उन्हें अपने राज्य को लौटाने का वक्त आ गया है। क्या हम शेष बचे वित्तीय वर्ष के पूर्व प्रस्तावित बजटीय प्रावधानों से, सर्वप्रथम वर्षा और बाढ़ के जख्मों को मरहम लगाने के लिए तैयार नहीं हो सकते। क्या नागरिक समाज अपनी ओर से प्रभावित लोगों की मदद के लिए कुछ खर्च वहन नहीं कर सकता। क्या तुरंत प्रभाव से सरकारी बसों में पचास प्रतिशत छूट के महिला किराए को अब हटा देना चाहिए।
क्या मुफ्त बिजली की सीमा को हटाकर पूरी दरें लागू नहीं कर देनी चाहिएं। समय आ गया है जब प्रदेश के आर्थिक वजूद में जनता अपना अस्तित्व कायम करे, वरना दस हजार करोड़ बहा देने के बावजूद मंत्रिमंडल की बैठक को मनरेगा और मिड डे मील वर्करों की दिहाड़ी बढ़ाने की चिंता कहीं अधिक रहेगी। चिंता यह भी होगी कि शिक्षा विभाग के अंशकालीन जलवाहक रेगुलर हो जाएं, लेकिन आपदा में जिनकी टैक्सियां या मालवाहक वाहन डूबे, उनके जीवन पर जब तक राज्य विचार नहीं करेगा, हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे। जिनका व्यापार चौपट हुआ या जिनके कृषि-बागबानी उत्पाद सड़ रहे हैं, उनके प्रति राज्य को प्राथमिक तौर पर आगे आना होगा।
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Rani Sahu
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