सम्पादकीय

आर्थिक असमानता और सुशासन

Subhi
6 Oct 2022 5:15 AM GMT
आर्थिक असमानता और सुशासन
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सुगम जीवन का मतलब महज नागरिकों की जिंदगी में सरकारी दखल कम और इच्छा से जीवन बसर करने की स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि जीवन स्तर ऊपर उठाने से है। जीवन स्तर तभी ऊपर उठता है जब समावेशी ढांचा पुख्ता हो

सुशील कुमार सिंह: सुगम जीवन का मतलब महज नागरिकों की जिंदगी में सरकारी दखल कम और इच्छा से जीवन बसर करने की स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि जीवन स्तर ऊपर उठाने से है। जीवन स्तर तभी ऊपर उठता है जब समावेशी ढांचा पुख्ता हो और सुशासन का आसमान कहीं अधिक नीला हो। 1992 की आठवीं पंचवर्षीय योजना समावेशी विकास से ओतप्रोत थी और यही वर्ष सुशासन के लिए भी जाना जाता है। मगर अब तक गांवों से पलायन रुका नहीं और बेरोजगारी की लगाम आज भी ढीली है।

जिस देश में ग्रामीण और शहरी दोनों स्तरों पर बुनियादी ढांचा औसतन बेहतर स्थिति में है, वहां सुशासन की राह न केवल चौड़ी हुई है, बल्कि सुजीवन यानी सुंदर जीवन का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है। सुजीवन और सुशासन का गहरा संबंध है। कानून का शासन, भ्रष्टाचार से मुक्ति, विकास के लिए विकेंद्रीकरण को बढ़ावा, भूमंडलीकरण की स्थिति को समझते हुए रणनीतियों में बदलाव, ई-गवर्नेंस, ई-लोकतंत्र और अच्छे अभिशासन की अवधारणा पोषित करना, साथ ही सरकार और शासन की भूमिका में निरंतर बने रहना सुशासन और सुजीवन की पूरी खुराक है।

भारत का मानव विकास सूचकांक तुलनात्मक रूप से बेहतर न होना सुजीवन के लिए बड़ा नुकसान है। गौरतलब है कि 2020 में भारत एक सौ नवासी देशों की तुलना में एक सौ इकतीसवें स्थान पर था, जो अपने पूर्ववर्ती वर्ष से दो कदम और पीछे गया है। ताजा रिपोर्ट में यही आंकड़ा एक सौ बत्तीसवें स्थान पर है। साफ है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भले भारत की स्थिति छठवीं से पांचवीं हो गई हो, मगर विकास का हिस्सा बहुतों तक अभी पहुंच नहीं रहा है। किसी भी देश की अवस्था और व्यवस्था को समझने में मानव विकास सूचकांक, 'ईज आफ लिविंग इंडेक्स' के साथ बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी और आर्थिक असमानता बड़े पैमाने हो सकते हैं।

सामाजिक नवाचार नए सामाजिक कार्य हैं, जिनमें समाज को विस्तारित और मजबूत करने के उद्देश्य से नवाचार की सामाजिक प्रक्रियाएं शामिल हैं। समस्या समाधान से लेकर योजना बनाने और सतत विकास लक्ष्य के बारे में जागरूकता फैलाकर नए संदर्भों को बढ़त दी जाती है। देश में फैली गरीबी न केवल आर्थिक ताना मार रही है, बल्कि विकास की राह में भी दशकों से कांटे बो रही है।

आज भी सत्ताईस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। हालांकि इस पर सरकारों की अपनी अलग राय रही है। मगर जब अस्सी करोड़ भारतीयों को पांच किलो अनाज मुफ्त देना पड़ा, तो समझिए गरीबी का आलम किस स्तर तक रहा होगा। अभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह ने भी देश में गरीबी, बेरोजगारी और आर्थिक असमानता पर चिंता व्यक्त की है।

गरीबी को देश के सामने एक राक्षस जैसी चुनौती मानते हुए इसे सरकार की अक्षमता कहा है। इसमें कोई शक नहीं कि देश दो तरह से आगे-पीछे हो रहा है। एक, आर्थिक रूप से मुट्ठी भर लोगों का आगे बढ़ना, दूसरा बड़ी तादाद में आम जन का बुनियादी विकास से अछूता रहना। भारत में साढ़े छह लाख गांव हैं और साठ फीसद से अधिक आबादी ग्रामीण है।

देश में ढाई लाख पंचायतें हैं। यह लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की वह रचना है, जहां से विकास की गंगा बहती है, मगर कई बुनियादी समस्याओं से गांव और उसकी पंचायतें आज भी जूझ रही हैं। शहर स्मार्ट बनाए जा रहे हैं, मगर बेरोजगारी इनकी चमक में चार चांद लगाने के बजाय मुंह चिढ़ाने का काम कर रही है।

'सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनामी' के बेरोजगारी पर जारी आंकड़े बताते हैं कि अगस्त 2022 में भारत की बेरोजगारी दर एक साल के उच्च स्तर 8.3 फीसद पर पहुंच गई। हालांकि सितंबर में शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में श्रम भागीदारी में वृद्धि के साथ बेरोजगारी दर में गिरावट की बात कही जा रही है। ग्रामीण रोजगार में गिरावट ने सुशासन और सुजीवन दोनों को कुचलने का काम किया है, मगर बेरोजगारी का शहरी जीवन पर सर्वाधिक असर हुआ है।

दुनिया में पचास फीसद से अधिक आबादी शहरों में रहती है। विश्व बैंक ने बरसों पहले कहा था कि अगर विकास में भारत की पढ़ी-लिखी महिलाओं का पूरी तरह योगदान हो जाए तो भारत की जीडीपी में 4.2 फीसद की बढ़ोतरी हो जाएगी। जीडीपी की इस बढ़त के साथ भारत को 2024 में पांच खरब डालर की अर्थव्यवस्था करने का इरादा भी शायद पूरा कर ले, मगर मौजूदा स्थिति में इसके आसार नहीं दिखाई देते। सुजीवन की तलाश सभी को है, मगर राह आसान कैसे होगी, इसकी समझ सत्ता, सरकार और प्रशासन से होकर गुजरती है।

2022 तक दो करोड़ घर उपलब्ध कराने से जुड़े सरकार के संकल्प सुजीवन और सुशासन की दृष्टि से कहीं अधिक प्रभावशाली था। इसी वर्ष किसानों की आय दोगुनी करने का इरादा भी इसी संकल्पना को मजबूत करता है। साथ ही बेरोजगारी समाप्त करने, महंगाई पर नियंत्रण करने और बेहतरीन नियोजन से आर्थिक खाई को पाने का सरकारी मंसूबा सुजीवन के पथ को चिकना कर सकता है, मगर यह जमीन पर उतरा नहीं है।

यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह सब जमींदोज हो गया, पर जो यह कदम सरकार ने बड़े विश्वास से उठाया था, उसे कहां रखा गया, यह सवाल आज भी अच्छे जवाब की तलाश में है। 2028 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश होगा। ऐसे में जीवन की जरूरतें और जिंदगी आसान बनाने की चुनौती बहुत बड़ी होगी।

सुगम जीवन का मतलब महज नागरिकों की जिंदगी में सरकारी दखल कम और इच्छा से जीवन बसर करने की स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि जीवन स्तर ऊपर उठाने से है। और जीवन स्तर तभी ऊपर उठता है जब समावेशी ढांचा पुख्ता हो और सुशासन का आसमान कहीं अधिक नीला हो। 1992 की आठवीं पंचवर्षीय योजना समावेशी विकास से ओतप्रोत थी और यही वर्ष सुशासन के लिए भी जाना जाता है।

इसी दौर में आर्थिक उदारीकरण का प्रसार होने लगा था और पंचायती राज व्यवस्था भी इसी समय लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की अवधारणा के अंतर्गत ग्रामीण इतिहास और विकास बड़ा करने के लिए संवैधानिक अंगड़ाई ले चुकी थी। बावजूद इसके गांवों से पलायन रुका नहीं और बेरोजगारी की लगाम आज भी ढीली है। आर्थिक असमानता और गरीबी का मुंह तुलनात्मक रूप से कहीं अधिक बड़ा हो गया है।

गौरतलब है कि 5 जुलाई, 2019 को बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने आम लोगों की जिंदगी आसान करने की बात कही थी, जबकि प्रधानमंत्री पुराने भारत से नए भारत की ओर बढ़ने की बात पहले ही कर चुके हैं। मगर बढ़े हुए कर और महंगाई के साथ रोजगार में कमी से जिंदगी और कठिन हुई है। बहुधा ऐसा कम ही हुआ है कि किसी योजना का लाभ संबंधित वर्ग को पूरी तरह मिला हो।

अगर ऐसा होता तो गरीबी, महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएं खतरे के निशान से ऊपर न होतीं। एक ओर हम नवाचार में छलांग लगा रहे हैं, दूसरी ओर बुनियादी समस्याओं से जनता कराह रही है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के डेटा बेस पर आधारित 'सेंटर फार इकोनामी डेटा एंड एनालिसिस' के मुताबिक 2020 में भारत की बेरोजगारी दर बढ़ कर 7.11 फीसद हो गई थी, जो 2019 के 5.27 फीसद से कहीं अधिक है। रिजर्व बैंक ने रेपो रेट बढ़ा कर ऋण धारकों पर ईएमआइ का नया बोझ भी लाद दिया है।

दूध, अंडा, फल, सब्जी, शिक्षा, चिकित्सा, बच्चों का पालन-पोषण आदि महंगाई के भंवर में हिचकोले खा रहे हैं। भारत में खुदरा महंगाई की दर बढ़ रही है। भारत का नाम बारह देशों की सूची में महंगाई के मामले में शीर्ष पर है। भारत सहित दुनिया भर के देशों के केंद्रीय बैंक महंगाई से निपटने के लिए कदम उठा रहे हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया ने ब्याज दरों में वृद्धि कर दी है और यही सिलसिला भारत में भी जारी है। कुल मिलाकर यही लगता है कि एक तरफ बुनियादी जरूरतों की लड़ाई है, तो दूसरी तरफ बेरोजगारी और महंगाई के साथ बढ़ते ब्याज की मार। ऐसे में सुशासन और सुजीवन कितना सार्थक है, यह समझना कठिन नहीं है।


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