सम्पादकीय

आधी आबादी का आर्थिक सुदृढ़ीकरण देश के विकास की सर्वप्रमुख एवं प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक

Gulabi
16 Oct 2021 6:09 AM GMT
आधी आबादी का आर्थिक सुदृढ़ीकरण देश के विकास की सर्वप्रमुख एवं प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक
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बीते दिनों लखनऊ में अमृत महोत्सव कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक सुदृढ़

ऋतु सारस्वत। बीते दिनों लखनऊ में अमृत महोत्सव कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक सुदृढ़ और अभिनव पहल करते हुए घोषणा की कि उत्तर प्रदेश के 75 जिलों के 75 हजार लाभार्थियों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत आवंटित घरों का मालिकाना अधिकार महिलाओं के नाम होगा। इस घोषणा के गहरे निहितार्थ हैं, विशेषकर उन परिस्थितियों में जब शिक्षित से लेकर अशिक्षित वर्ग महिलाओं के नाम संपत्ति नहीं करना चाहता। राजस्थान को उदाहरण के तौर पर देखें, तो अप्रैल 2021 से सितंबर 21 के मध्य खरीदी गई 2471 करोड़ की संपत्ति में से महिलाओं के नाम मात्र 16.5 प्रतिशत खरीदी गई। यह तब हुआ जब महिलाओं के नाम स्टांप ड्यूटी में एक प्रतिशत की छूट है। यही स्थिति कमोबेश देश के हर राज्य की है।

यह अकाट्य सत्य है कि आधी आबादी का आर्थिक सुदृढ़ीकरण देश के विकास की सर्वप्रमुख एवं प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है। महिला संपत्ति अधिकार लैंगिक समानता को बढ़ावा देता है, जो अंतत: विकास की ओर ले जाता है। यूएन हैबिटेट के अनुसार, हर चार में से एक विकासशील देश में ऐसे कानून हैं, जो महिलाओं को संपत्ति रखने से रोकते हैं। महिलाओं के संपत्ति अधिकार इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे उन्हें आर्थिक सुरक्षा देते हैं। आर्थिक सुदृढ़ीकरण का अभाव महिलाओं के निर्णय लेने के अधिकार को सीमित करता है।
भूमि और संपत्ति का स्वामित्व विश्व के अधिकांश देशों में आर्थिक स्थिरता का सबसे मजबूत गारंटीशुदा उत्तराधिकार माना जाता है। अध्ययन बताते हैं कि जब भी महिलाओं को अधिकार दिए जाते हैं तो पूरे समुदाय को लाभ मिलता है। इन लाभों में खाद्य सुरक्षा, बच्चों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा में निवेश भी शामिल हैं। केरल में हुए एक शोध के मुताबिक 15-49 साल की वे महिलाएं, जिनके पास संपत्ति के अधिकार नहीं है, वे 49 प्रतिशत घरेलू हिंसा का शिकार हुईं, परंतु जिन महिलाओं के नाम संपत्ति थी, उनके साथ घरेलू हिंसा की दर सात प्रतिशत रही। विश्व बैंक समूह की एक रपट के अनुसार दुनिया भर में हर पांच में से दो देश महिलाओं के संपत्ति के अधिकारों को सीमित करते हैं। 19 देशों में महिलाओं को अचल संपत्ति पर समान स्वामित्व का अधिकार नहीं है और 44 देशों में पुरुषों और महिलाओं के पास संपत्ति के उत्तराधिकारी के समान अधिकार नहीं हैं।
भेदभावपूर्ण सामाजिक मानदंड और प्रथाएं महिलाओं और संपत्ति के अधिकारों के बीच सबसे मजबूत बाधाओं में से हैं। नीतियों का कमजोर क्रियान्वयन, कानून को लागू करने की अपर्याप्त क्षमता और कानूनी सेवाओं तक कम पहुंच, घरों के भीतर कानूनी समझ की कमी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में समान रूप से संपत्ति के अधिकार को प्राप्त करने में एक अदृश्य, लेकिन अभेद्य दीवार का निर्माण करती है। एकता परिषद द्वारा भारत में महिलाओं के भूमि अधिकारों को लेकर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, राज्यों के भूमि राजस्व तंत्र अर्थात प्रशासन में महिला अधिकारियों और कर्मचारियों का अनुपात औसतन 20 प्रतिशत से भी कम है। प्रशासन में महिला कर्मचारियों और अधिकारियों का अभाव कहीं न कहीं महिलाओं के संपत्ति के अधिकारों के अनुत्तरित प्रश्नों के लिए उत्तरदायी है। एक अन्य बाधा पितृसत्तात्मक व्यवस्था का वह ढांचा है, जहां यह विश्वास किया जाता है कि महिलाओं की भूमिका प्रत्यक्ष अर्थ अर्जन के साथ नहीं जुड़ी हुई है इसलिए गैर मौद्रिक योगदान की उनकी नकारात्मक भूमिका उन्हें संपत्ति प्राप्ति का अधिकारी नहीं मानती।
भारत में विवाहित महिलाओं के 22 प्रतिशत की तुलना में 66 प्रतिशत विवाहित पुरुषों के पास संपत्ति का मालिकाना अधिकार है। भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है जहां संवैधानिक प्रतिबद्धता और वैधानिक प्रविधानों के बावजूद महिलाएं अपने अधिकार से वंचित हैं। यूं तो अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार कानून की नए सिरे से व्याख्या करते हुए उत्तराधिकार के वैधानिक प्रविधानों की परिधि में बेटी को जन्म के साथ ही पिता की संपत्ति में कानूनन अधिकारी माना है। इसके बावजूद वे अपने अधिकारों से वंचित हैं और इसका एक बहुत बड़ा कारण वह पारिवारिक एवं सामाजिक दबाव है, जहां महिलाएं स्वयं ही अपने अधिकारों को भावनात्मक कारणों से छोड़ देती हैं। यहां तक कि परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा निरंतर उन्हें इस बात के लिए बाध्य किया जाता है कि अगर वे संपत्ति पर अपना अधिकार मांगने के लिए कानून का सहारा लेगीं तो उन्हें पारिवारिक संबंधों को छोड़ना पड़ेगा। सामाजिक एवं मानसिक दबाव की पराकाष्ठा का स्तर दो माह पूर्व राजस्थान में घटी घटना से लगाया जा सकता है, जहां रक्षाबंधन पर बहनों से भाई के लिए पिता की संपत्ति पर अपने अधिकार का स्वैच्छिक त्याग करने की अपील तहसीलदार कार्यालय से जारी प्रेस नोट के माध्यम से की गई।
तमाम कानूनी और संवैधानिक प्रविधानों के बावजूद महिलाओं का संपत्ति के अधिकार से वंचित रह जाना प्रभुत्व का वह संघर्ष है, जहां संपत्ति का स्वामित्व आर्थिक अनिश्चितता को न केवल समाप्त करता है, बल्कि समाज में निर्णायक भूमिका भी प्रदान करता है और इस प्रभावशाली भूमिका को कायम रखने के लिए पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था हरसंभव प्रयास करती है। ऐसी व्यवस्थाओं के बीच प्रधानमंत्री की महिलाओं के नाम आवास के मालिकाना अधिकार की घोषणा उन बाधाओं को पार करने का शस्त्र दे रही है, जहां महिलाओं के अधिकार छलबल से छीन लिए जाते हैं। यह तय है कि यह पहल भारत के विकास में नए अध्याय को जोड़ेगी।

(लेखिका समाजशास्त्री हैं)


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