सम्पादकीय

निर्वासित आवाजों की गूंज

Rani Sahu
19 Oct 2022 7:11 PM GMT
निर्वासित आवाजों की गूंज
x
अरे-अरे क्या कह दिया आपने? आजकल खांसी की बात करना गुनाह है। खांसी की बात करोगे तो फिर जुकाम और छींक की बात करोगे, फिर हल्के बुखार और दम घुटने की बात करोगे, फिर फ्लू तशरीफ लाएगा, फिर उससे दस गुणा ताकतवर कोरोना फ्लू तशरीफ लाएगा। लोग दहशतज़दा होकर आंकड़े पढ़ेंगे। विश्व के कितने देश इस महामारी से प्रभावित हो गए? आज महामारी से संक्रमित होने का आंकड़ा कितना बढ़ा है? बचपन से सुनते आए हैं, राम से बड़ा राम का नाम। अब कलयुग आ गया, इसलिए सुनने लगे, महामारी से बड़ा महामारी का नाम। सुनो तो ही महसूस होने लगता है। बदन का तापमान बढ़ गया, बुखार तेज होने लगा। सांस घुट रही है। फेफड़े रुक गए, भरे-भरे से, कफ और बलगम की तासीर है, जिस पर जान जाने का भय उस पर पालथी मार कर बैठा है। आदमी जीते जी दम तोड़ रहा है, बुद्धिमान कहते हैं नए विषाणु हैं।
इनका टेंटुआ पकडऩे का 'हमारे पास कोई इलाज नहीं। अब दूसरे धाम की टिकट कटे या नहीं, सबसे अधिक भय तो उसे ही लगता है दूसरे धाम के महा प्रयाण का, उसे जिसके पेट में रोटी नहीं, हाथ में काम नहीं, बदन पर कपड़ा नहीं। बड़े बंगलों और प्रासाद मालिकों का क्या है? वे तो बड़ी-बड़ी पार्टियों से जमाना बदल जाने का नृत्य नाचते हैं। मदमत्त मादकता उनकी नसों में फिरकी की तरह घूमती है। ये वे लोग हैं जो संक्रमित होते नहीं, बाहर खड़ी जि़ंदगी की भीख मांगती वंचितों की भीड़ को संक्रमित करते हैं। तुम्हें तो कहा था न इस महामारी का संदेश है, अब भीड़तंत्र निर्वासित हो गया, अकेले-दुकेले हो जाने का मौसम है। बदलते मौसम को स्वीकार करो और इस बीहड़ अकेलेपन में और भी अकेले हो जाओ। न निकलो अपने घरों से बाहर, तुम्हारा चेहरा भी किसी को नजऱ न आए। अब ऐसे दिन काटने की आदत हो गई तो उपकृत होकर आभार प्रकट करो, इस महामारी के धन्यवाद का अंत नहीं। इसने हमें तालियां और कटोरियां बजा कर विषाणु भगाने का रास्ता सुझा दिया। हर नए दिन मौत के आंकड़े बढ़ जाते हैं और कोई संवेदनशील कवि नहीं कहता, कि 'मौत तू भी एक कविता है। कविता का वायदा था कि वह मिलेगी हमसे एक नई जि़ंदगी बन कर।' जि़ंदगी तो वही रही, कि जैसे किसी खंडहर होती अंधेरी रात में चमगादड़ अपने डैने फटफटाते हैं।
डैनों के फटफटाने की आवाज़ बरसों से हो रही है, क्या बरसों होती रहेगी? इस आवाज़ को बंद करने का कोई रास्ता नहीं। शहरों के कब्रिस्तान हो जाने की आशंका से संत्रस्त आवाज़ें अपने गांव-घरों को लौटती हुई पूछती हैं, उन्हें कहा गया था बाकायदा अपना परीक्षण करवा कर कीटाणु रहित होकर एक-एक करके वापस लौट जाइए। लेकिन इतना धीरज किसके पास है? डरे हुए लोग हजूम बन जाने वाली रेलगाडिय़ों पर लद रहे हैं। ये रेलगाडिय़ां उन्हें वापस उन्हीं ठिकानों पर ले जा रही हैं जहां से उन्होंने कभी सपनों की एक नई दुनिया इन शहरों में अपने लिए रचने की सौगंध खाई थी। लेकिन लौटते हुए लोगों के उतरे हुए चेहरे बताते हैं कि शायद उनकी नियति ही है, ऐसी कसमें न खाने का साहस करना। कभी साहस करने की गुस्ताखी कर लें तो इस पर शर्मिन्दा होते हुए भयाक्रांत वापस लौटना। लेकिन कब तक लौटते रहेंगे ये डरे हुए लोग? क्या वे अपनी जि़ंदगी को अज़ाब बना देने वाले इन विषाणुओं की पहचान कर पाएंगे? क्या वे कभी समझ सकेंगे कि ये विषाणु केवल महामारी पैदा ही नहीं करते, उनके रूप बदल-बदल कर पैदा होने का कारण भी बन जाते हैं। वे इन सब रूपों की पहचान करना चाहते हैं, लेकिन अजनबी शहरों में अपने डैने फटफटाते हुए चमगादड़ उन्हें ऐसा नहीं करने देते। क्यों?
सुरेश सेठ

By: divyahimachal

Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story