सम्पादकीय

पृथ्वी का ऊर्जा असंतुलन

Triveni
21 Jun 2021 2:18 AM GMT
पृथ्वी का ऊर्जा असंतुलन
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पिछले चौदह वर्षों में पृथ्वी का ऊर्जा असंतुलन अगर दोगुना हुआ है, तो यह दुख और चिंता की बात है।

पिछले चौदह वर्षों में पृथ्वी का ऊर्जा असंतुलन अगर दोगुना हुआ है, तो यह दुख और चिंता की बात है। पृथ्वी ज्यादा तेजी से गरम हो रही है, जिससे जलवायु परिवर्तन का संकट और बढ़ा है। पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन और उसमें आ रहे बदलाव को जानने के लिए नासा और यूएस नेशनल ओशनिक ऐंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के अध्ययन में यह तथ्य उजागर हुआ है। शोध के नतीजे जर्नल जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुए हैं। हम सब जानते हैं कि पृथ्वी का तापमान एक नाजुक संतुलन से निर्धारित होता है। पृथ्वी निश्चित मात्रा में सूर्य की विकिरण ऊर्जा हासिल करती है और फिर इन्फ्रारेड तरंगों के रूप में अतिरिक्त ऊष्मा अंतरिक्ष में उत्सर्जित कर देती है। ऊर्जा असंतुलन का अर्थ है- धरती ऊर्जा प्राप्त कर रही है, जिससे यह ग्रह गरम हो रहा है।

नासा और एनओएए के वैज्ञानिकों ने ऊर्जा असंतुलन को मापने के लिए दो विधियों से मिले आंकड़ों की तुलना की है। इसके नतीजे एक जैसे आए। ये परिणाम सटीक अनुमान लगाने में सक्षम बनाते हैं कि बढ़ता ऊर्जा असंतुलन एक वास्तविक घटना है, कल्पना नहीं। ऊर्जा असंतुलन से लगभग 90 फीसदी अतिरिक्त ऊर्जा समुद्र को गरम कर रही है, इसलिए आने और जाने वाली विकिरण के समग्र रुझान यही निर्धारित करते हैं कि बदलावों के चलते समुद्र गरम हो रहा है। शोध के प्रमुख लेखक और नासा से जुडे़ नॉर्मन लोएब कहते हैं कि यह रुझान एक मायने में काफी चेतावनी भरा है। इंसानी गतिविधियों के चलते ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि, जैसे कॉर्बन डाईऑक्साइड और मिथेन के कारण तापमान गरम हुआ है। ये गैस गरमी को वातावरण में ही पकड़ लेती हैं। बाहर जाने वाली विकिरणों के रुक जाने से वे वापस अंतरिक्ष में नहीं जा पातीं। शोध के अनुसार, वार्मिंग के चलते अन्य बदलाव भी आते हैं। जैसे, जलवाष्प में वृद्धि, बर्फ का ज्यादा पिघलना, बादलों व समुद्र्री बर्फ में कमी आना आदि। पृथ्वी के ऊर्जा असंतुलन में इन सभी कारकों का सीधा असर है। इस असंतुलन को मापने के लिए वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट से मिले आंकड़ों, बादलों में परिवर्तन, गैसों के योगदान, सूर्य की रोशनी और महासागरों में लगे सेंसर्स सिस्टम का उपयोग किया है। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि प्रशांत महासागर के दीर्घकालिक महासागरीय उतार-चढ़ाव के कारण ठंडे चरण से गरम चरण में उछाल भी ऊर्जा असंतुलन की तीव्रता का परिणाम है। पृथ्वी के सिस्टम में स्वाभाविक रूप से होने वाली यह आंतरिक परिवर्तनशीलता मौसम और जलवायु पर दूरगामी प्रभाव डाल सकती है। लोएब यह भी चेतावनी देते हैं कि यह शोध दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन के सापेक्ष केवल एक स्नैपशॉट है। किसी भी निश्चितता के साथ भविष्यवाणी करना संभव नहीं है कि आने वाले दशकों में पृथ्वी के तापमान संतुलन में कैसी गति रहेगी। हालांकि, शोध का निष्कर्ष यही है कि जब तक गरमी की रफ्तार कम नहीं होगी, तब तक वातावरण में बदलाव होता रहेगा। वाशिंगटन के सिएटल में नेशनल ओशनिक ऐंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के पैसिफिक मरीन एनवायर्नमेंटल लेबोरेट्री से जुड़े व शोध के सहलेखक ग्रेगरी जॉनसन कहते हैं, पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन को समझने के लिए इस ऊर्जा असंतुलन के परिणामों का अवलोकन महत्वपूर्ण है।


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