सम्पादकीय

ई-वाहन : कुछ उपलब्धियां, कुछ प्रश्न, बैटरी आयात और चार्जिंग के सार्वजनिक ढांचे की धीमी प्रगति पर उठते सवाल

Neha Dani
16 Oct 2022 2:27 AM GMT
ई-वाहन : कुछ उपलब्धियां, कुछ प्रश्न, बैटरी आयात और चार्जिंग के सार्वजनिक ढांचे की धीमी प्रगति पर उठते सवाल
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बल्कि एक नए किस्म के आयात बिल का बोझ डाल देगी।

क्रांतियां केवल राजनीतिक नहीं होतीं। तकनीक की दुनिया के क्रांतिकारी परिवर्तन भी इंसान को हमेशा के लिए बदलते रहे हैं। भारत के ऑटोमोबाइल इतिहास में पहली बार इधर कुछ ऐसा ही घट रहा है। ओणम और गणेश चतुर्थी से आरंभ हुआ त्योहारी सीजन खुशखबरी लाया है कि भारतीय मध्यवर्ग इलेक्ट्रिक वाहनों को अपना रहा है। खरीदारी के ताजा ट्रेंड बता रहे हैं कि बाजार में बिकने वाले हर सौ में से 15 स्कूटर बैटरी चालित हैं। मतलब आज देश में बिकने वाला हर सातवां स्कूटर इलेक्ट्रिक है और एक अनुमान के मुताबिक अगले तीन साल में ही वह स्थिति आने वाली है, जब बाजार में बिकने वाला हर दूसरा स्कूटर बैटरी वाला होगा।

सड़कों पर तिपहिया और सरकारी बस जैसे इलेक्ट्रिक वाहन तो डेढ़-दो दशक से लोग देख ही रहे हैं। लेकिन निजी जीवन में ई-वाहनों के प्रवेश की यह संभवत: पहली धमक है। भारी उद्योग मंत्रालय के आंकड़े बता रहे हैं कि आज देश में सड़कों पर कुल 13 लाख 34 हजार से अधिक इलेक्ट्रिक वाहन मौजूद हैं, जबकि गैर-इलेक्ट्रिक पारंपरिक श्रेणी के कुल 27 करोड़ 81 लाख से ज्यादा वाहन दौड़ रहे हैँ। जाहिर है, तुलना में अभी ई-वाहनों का अनुपात बहुत कम हैं, लेकिन भविष्य का ट्रेंड साफ है। सरकारी सब्सिडी और ई-वाहनों के आधुनिक फीचरों की बदौलत ई-वाहनों की बिक्री में गुणात्मक बढ़त होगी।
एक बात साफ है। चूंकि छोटी से छोटी इलेक्ट्रिक कार भी नौ-दस लाख की बैठती है, भारत में ई-वाहन क्रांति स्कूटर या साइकिल पर ही बैठकर आएगी। ई-स्कूटर की सब्सिडीशुदा कीमत मॉडल या रेंज के हिसाब से 80 हजार से डेढ़ लाख के बीच है। यह कीमत आम मध्यवर्गीय की जेब के करीब है। इसके अलावा पेट्रोल से चलने वाले स्कूटर में प्रति किलोमीटर लागत अगर दो से ढाई रुपये आती है, तो ई-स्कूटर में यह मात्र 30 पैसे प्रति किलोमीटर बैठती है। बेशक, किफायत के इस अर्थशास्त्र में एक बड़ी भूमिका केंद्र और राज्यों की रियायतों की है।
'नेशनल मिशन ऑन इलेक्ट्रिक मोबिलिटी' स्कीम के तहत 2015 में फेम नीति - 'हाइब्रिड व इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए फास्टर एडोप्शन एंड मैन्यूफैक्चरिंग' स्कीम का पहला चरण शुरू हुआ। उसी फेम स्कीम का दूसरा चरण 10,000 करोड़ के भारी सब्सिडी बजट के साथ मार्च 2024 तक चलेगा जिसके तहत ई-स्कूटर पर प्रति किलोवाट 15 हजार रुपये की सहायता कंपनी को दी जाती है। ई-वाहनों पर सिर्फ पांच फीसदी जीएसटी दर लागू है। कई राज्यों ने रोड टैक्स और पंजीकरण शुल्क में सौ फीसदी तक कटौती की है।
चलाने में किफायती और प्रदूषण से मुक्त ई-वाहनों की लोकप्रियता स्वागतयोग्य है। इसका श्रेय केंद्र सरकार की दूरदर्शिता और भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी जैसे राजनेताओं के सात्विक आग्रहों को जाता है। मगर कई मुद्दे हैं, जो ई-वाहन क्रांति की भ्रूणहत्या कर सकते हैं। पहला, बाजार में मांग तो उभर गई मगर आपूर्ति तंत्र कहां है? ई- इन्फ्रास्ट्रक्चर तो कदमताल करता नजर नहीं आता। चार्जिंग का सार्वजनिक ढांचा अधूरा पड़ा है। दूसरा बड़ा सवाल, ई-वाहनों की बैटरी का पेट भरने के लिए बिजली आएगी कहां से?
राष्ट्रीय ग्रिडों पर पहले से बहुत बोझ है। कई राज्यों में बिजली कटौती से नागरिकों की नींद हराम है। उससे भी बड़ा सवाल। लाखों ई-वाहनों का बेड़ा जो बिजली खाएगा, वह कोयला संयंत्रों से आएगी या सौर ऊर्जा व पनबिजली परियोजनाओं से? आज भी देश में कुल बिजली उत्पादन का 75 प्रतिशत हिस्सा कोयला आधारित थर्मल संयंत्रों से आता है, जिन्हें प्रदूषणकारी ग्रीनहाउस गैसों का मुख्य स्रोत कहा जाता है।
पेरिस समझौते के मुताबिक भारत को 2030 तक अपनी कुल जरूरत की पचास प्रतिशत बिजली सौर, पवन, पनबिजली, बायोमास या आणविक जैसे सतत ऊर्जा स्रोतों से पैदा करनी है। मगर आज राष्ट्रीय खपत की बमुश्किल 13 प्रतिशत बिजली सतत स्रोतों से आती है। उधर, स्वयं केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) का आंकड़ा है कि 2032 में बिजली की मांग इतनी बढ़ेगी कि कोयला बिजलीघरों के उत्पादन में 28 हजार मेगावाट का इजाफा हमारी मजबूरी होगा। बस, यहीं हम फंस जाते हैँ। जिस प्रदूषण से निजात के लिए ई-वाहनों को प्रोत्साहन दिया, वह कोयला संयंत्रों की मार्फत जारी रहेगा तो क्या `ढाक के वही तीन पात` जैसी स्थिति नहीं होगी?
एक धर्मसंकट यह है कि तेल आयात पर निर्भरता से बचाने की ई-वाहन मुहिम कहीं देश को लीथियम आयन बैटरी के आयात का मोहताज न बना डाले? बैटरी ही वाहन का सबसे महंगा पुर्जा होती है। डराने वाला तथ्य यह है कि दुनिया में कुल बैटरी उत्पादन में अकेले चीन का 56 प्रतिशत हिस्सा है। बैटरी का 92 फीसदी ग्लोबल उत्पादन एशिया में और सिर्फ आठ फीसदी बाकी दुनिया में होता है। भारत इस गिनती में फिलहाल कहीं नहीं है। ऐसे में बिना पर्याप्त स्वदेशी बैटरी उत्पादन के भारत कैसे काम चलाएगा?
सवाल और भी हैं। क्या फेम-टू सब्सिडी शर्तों के मुताबिक ई-वाहन कंपनियां पुर्जो का पर्याप्त स्थानीयकरण कर पा रही हैं? हाल में सीमा से अधिक आयातित पुर्जे इस्तेमाल करने पर कई नामी कंपनियों पर कार्रवाई हुई है। फिर, क्या सभी राज्य ई-वाहनों को पर्याप्त प्रोत्साहन दे रहे हैं? दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे कई राज्य केंद्र की सब्सिडी के समानांतर अपनी अलग सब्सिडी या अतिरिक्त रियायतें देने में आगे रहे जबकि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्य अब नींद से जागे हैं।
खासे विलंब से उनकी ईवी नीति आई और अब भी वे दक्षिण भारतीय राज्यों जितने फायदे नहीं दे रहे। बहुत से उपभोक्ता ई-वाहनों में ज्यादा आग लगने की अफवाह से सहमे हैं जबकि अध्ययन ऐसे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं। बैटरी के आयातित पैक भारतीय सड़कों की दशा को ध्यान में रखकर नहीं बनाए जाते जिससे दुर्घटना या शॉर्ट सर्किट की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे कई मुद्दों की अनदेखी आगे जाकर न केवल देश को महान ईवी क्रांति के लाभांशों से दूर कर देगी, बल्कि एक नए किस्म के आयात बिल का बोझ डाल देगी।

सोर्स: अमर उजाला

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