सम्पादकीय

दुष्यंत कुमार जयंती विशेष: भावनाओं को शब्दों के माध्यम से बयां करने की कला थी दुष्यंत में, एक महान कवि-गज़लकार

Neha Dani
2 Sep 2022 1:41 AM GMT
दुष्यंत कुमार जयंती विशेष: भावनाओं को शब्दों के माध्यम से बयां करने की कला थी दुष्यंत में, एक महान कवि-गज़लकार
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हो कही भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

अंग्रेजी भाषा के सुप्रसिद्ध कवि-आलोचक कार्लाइल कहते हैं- "काव्य नायक वही कवि होता है, जो स्पष्ट रूप से कानों और दिलों में गूंजने वाली आवाज से उन भावनाओं और आंतरिक अनुभवों को संगीतमय रूप से प्रतिध्वनित करे, जो पूरे समाज की अर्धचेतना में वाणी पाने की प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन जिन्होंने अभी तक वाणी नहीं पाई थी।"


कहना गलत न होगा कि अपने समय में जनता की सुप्त चेतना को जगाने के लिए गज़लों के जरिए यहीं काम हिंदी के सुपरिचित गज़ल लेखक दुष्यंत कुमार ने किया। उनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी है।1 सितंबर को उनकी 99वीं जयंती थी। उनका जन्म बिजनौर जिले के राजपुर नेवादा में हुआ। हालांकि वे कुल 42 साल ही जीवित रहे, पर अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक उथल पुथल और बदलाव को जिस शिद्दत और साफ़गोई से उन्होंने अपने गजलों के जरिए बयां किया, वह मुकाम आजतक किसी अन्य को हासिल नहीं हो सका।


आपातकाल के दौरान दुष्यंत की रचनाएं

देश में आपातकाल के दौरान उनका कविमन अत्यंत क्षुब्ध और आक्रोशित हुआ, जिसकी अभिव्यक्ति उनकी कुछ कालजई गज़लों में दिखाई देती है। दुष्यंत कुमार की एक शिकायत यह रहीं कि आजादी के बाद सता के नायकों ने अपनी संस्कृति को भूलकर शोषण की तहजीब को अपना आदर्श माना, जिसे दुष्यंत कुमार ने इन शब्दों में बयां किया है-
अब नई तहजीब के पेशे नज़र हम,आदमी को भूलकर खाने लगे है।
कल की नुमाइश में मिला वो चिथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला हिंदुस्तान है।


शोषण की यह तहजीब उस ब्रिटिश हुकूमत की देन है, जिसके प्रति 'हिन्द स्वराज' के जरिए गाँधी जी हमें सावधान करते हैं। जिसे फ़ारसी के सुपरिचित शायर-दार्शनिक अल्लामा इक़बाल ने दो टूक ढंग से चेताया है-

तुम्हारी तहज़ीब अपने खंजर से आप ही खुदकुशी करेगी
जो शाखे नाज़ुक पे आशियाना बनेगा नापायदार होगा।


इक़बाल की ये पंक्तियां एक चर्चित गज़ल की हैं, जिसे 1907 में लिखा गया। इसकी अनुगूंज फैज अहमद फैज के 'तराना'-2 में संकलित (सन्1982) चंद पंक्तियों में भी देखा जा सकता है-
लाज़िम है के, हम भी देखेंगे
वो दिन के जिसका वादा है
जब जुल्मों-सितम के कोहे-गरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे
सब बुत उठवाये जाएंगे
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराये जाएंगे
और राज करेगी खल्के ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।


हिंदी कविता में विद्रोह के ऐसे तेवर 'मुक्तिबोध' और 'धूमिल' की कविताओं में भी दिखाई देता है। जिस समय ये कवि-लेखक, शायर अपने रचना कर्म में सक्रिय थे, ये वो समय था- जब देश में सत्ता से लोगों का मोहभंग हो रहा था। देश में गैर कांग्रेसवाद के रूप में नया विकल्प पेश करने की कोशिशें हो रही थीं और नौजवानों का एक बड़ा और पढ़ा-लिखा तबका नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित होकर सक्रिय रुप से उस आंदोलन में शामिल हुआ।

कुछ ही दिनों बाद देश में आपातकाल भी लागू हुआ। उस दौर की पीड़ा से आक्रोशित दुष्यंत कुमार को कहना पड़ा-

हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गांव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में न सही तेरे सीने में सही,
हो कही भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

सोर्स: अमर उजाला

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