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आम लोगों के दिल-दिमाग में पैदा हुई नरेन्द्र मोदी के लिए सहानुभूति
सुरेंद्र किशोर। हाल में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने यह कहकर हलचल मचाई कि 'मैं और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं चाहते थे कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ प्रतिशोध की राजनीति हो।' यह साफ है कि उनके विचारों को अहमियत नहीं दी गई। काश, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार ने शरद पवार और मनमोहन सिंह की सलाह मान ली होती। आज नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हैं तो उसका एक बड़ा कारण यही रहा कि तत्कालीन संप्रग सरकार ने लगातार उनके खिलाफ प्रतिशोधात्मक और निंदा अभियान चलाया। खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नरेन्द्र मोदी को 'मौत का सौदागर' तक कहा।
संप्रग और उसकी सरकार ने यह प्रदर्शित करने की कोशिश की कि 2002 में जिस तरह के दंगे गुजरात में हुए, वैसे दंगे उससे पहले कभी नहीं हुए। हालांकि यह सही नहीं था। अन्य कई सांप्रदायिक दंगों के आंकड़े इसकी पुष्टि नहीं करते हैं कि गुजरात दंगा सर्वाधिक भयावह था। ध्यान रहे कि शरद पवार ने प्रतिशोध शब्द का इस्तेमाल किया है। किसी की गलती के खिलाफ कार्रवाई करने या अभियान चलाने को प्रतिशोध नहीं कहा जाता। उसे वाजिब कार्रवाई कहते हैं। प्रतिशोध उसे ही कहते हैं, जो संप्रग सरकार मोदी के खिलाफ कर रही थी। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार संप्रग सरकार के प्रतिशोधात्मक अभियानों और कार्रवाइयों के कारण भी देश के ऐसे अनेक आम लोगों के दिल-दिमाग में नरेन्द्र मोदी के लिए सहानुभूति पैदा हो गई, जो पहले भाजपा के समर्थक नहीं थे। स्वाभाविक रूप से इसने राजनीतिक परिदृश्य पर एक बड़ा अंतर पैदा किया। चुनावी आंकड़ों से यह स्पष्ट भी है।
शरद पवार की बात से भी यह साफ हुआ कि गुजरात दंगे के लिए नरेन्द्र मोदी जिम्मेदार नहीं थे। असलियत भी यही थी कि मोदी ने दंगे को रोकने की भरसक कोशिश की थी। अदालत ने भी मोदी को दोषी नहीं माना। जो किसी मामले में दोषी नहीं, उसे लेकर अगर मौत का सौदागर, खून की दलाली करने जैसे नाहक आरोप लगाए जाएंगे तो माहौल उलटे आपके खिलाफ ही होगा। यही हुआ भी। नतीजतन भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ आज केंद्र की सरकार चला रही है और कांग्रेस के लिए लोकसभा की सौ सीटें मिलनी भी मुश्किल हो रही है। विडंबना यह है कि इसके बाद भी कांग्रेस मोदी के खिलाफ प्रतिशोध से भरी नजर आती है। वह इसका प्रदर्शन आज भी करती रहती है। गुजरात दंगे के सिलसिले में प्रतिशोध का बड़ा उदाहरण बनर्जी न्यायिक आयोग का गठन था। गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती एक्सप्रेस अग्निकांड की जांच के लिए तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद ने बनर्जी आयोग का गठन किया। आयोग ने यह रपट दी कि साबरमती एक्सप्रेस की बोगी नंबर एस-छह में बाहर से आग लगाने का कोई सुबूत नहीं मिला, जबकि सीबीआइ ने सघन जांच के बाद यह पाया कि रेल डिब्बे में बाहर से पेट्रोल छिड़ककर आग लगाई गई, जिससे 59 कारसेवक जलकर मर गए। अदालत ने दोषी लोगों को बाद में सजा भी दी।
अब गुजरात दंगे और देश में हुए कुछ अन्य दंगों का तुलनात्मक अध्ययन कर लिया जाए। गोधरा में हुए अग्निकांड की नृशंसता से उद्वेलित उग्र भीड़ ने अल्पसंख्यकों पर हमले शुरू किए थे। जवाबी हमले भी हुए। उसमें अल्पसंख्यक समुदाय के 790 और बहुसंख्यक समुदाय के 254 लोग मरे। दंगे के दौरान नौ लोगों की मौत के बाद ही गुजरात में सेना सड़कों पर थी। दंगाई भीड़ को नियंत्रित करने की कोशिश में कई पुलिसकर्मी शहीद हुए। गुजरात पुलिस ने दंगाइयों पर जो गोलियां चलाईं, उस कारण भी दर्जनों लोग मारे गए। तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से आग्रह किया था कि वह अपने राज्य से पुलिस गुजरात भेजें, किंतु सेक्युलर मुख्यमंत्री ने पुलिस बल नहीं भेजा।
गुजरात दंगे के विपरीत 1989 के बिहार के भागलपुर दंगे में अल्पसंख्यक समुदाय के करीब नौ सौ और बहुसंख्यक समुदाय के करीब सौ लोग मरे थे। तत्कालीन एसपी की जीप पर अल्पसंख्यक समुदाय के गुंडों ने बम फेंक दिया। दंगा उसी के बाद शुरू हुआ। उस दंगे में जिला पुलिस की संलिप्तता के आरोप में बिहार सरकार ने एक पुलिस अफसर का तबादला कर दिया, पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भागलपुर पहुंचकर उसे रोक दिया था। भागलपुर दंगे के बाद अल्पसंख्यक समुदाय को यह लगा था कि शासन ने दंगा रोकने की कोशिश नहीं की, बल्कि उसे बढ़ाया। नतीजतन अधिकतर अल्पसंख्यकों ने 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट नहीं दिया। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्वकाल में भागलपुर जैसा कोई दंगा देश में नहीं हुआ, फिर भी आश्चर्य है कि अल्पसंख्यकों का बहुलांश चुनावों में एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ वोट दे रहा है। वहीं 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख नरसंहार में सिर्फ दिल्ली में मृतक सिखों की संख्या 3,000 बताई गई। देश के अन्य कई नगरों में भी सिख मारे गए।
31 अक्टूबर से लेकर तीन नवंबर तक दिल्ली की सड़कों पर कोई सेना या पुलिस नहीं थी। यह सही है कि गुजरात में पूर्व सांसद अहसान जाफरी के यहां से शासन को फोन किया जाता रहा, पर उन्हें कोई मदद नहीं मिली। वह दंगाइयों के शिकार हो गए, पर दिल्ली में तो तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह और सरदार खुशवंत सिंह के त्रहिमाम संदेशों को भी तत्कालीन प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने नजरअंदाज कर दिया था। हालांकि ऐसे सभी दंगों की समान रूप से निंदा होनी चाहिए, परंतु जो गोधरा में मानव दहन की निंदा नहीं करता, उसे गुजरात दंगे पर बोलने का भी कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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