- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- तुष्टीकरण की नीति के...
सम्पादकीय
तुष्टीकरण की नीति के चलते कांग्रेस ने मुस्लिमों को मोस्ट फेवर्ड कम्युनिटी का दर्जा दिया
Gulabi Jagat
29 April 2022 8:45 AM GMT
x
अगर हम भारत में होने वाले दंगों को पेशेवर-उद्यम की तरह देखें तो पाएंगे कि वह तीन स्तरों पर विभाजित है
मिन्हाज मर्चेंट का कॉलम:
अगर हम भारत में होने वाले दंगों को पेशेवर-उद्यम की तरह देखें तो पाएंगे कि वह तीन स्तरों पर विभाजित है। इसके शीर्ष पर उकसाने वाले हैं। इनमें वे सेकुलर पार्टियां शामिल हैं, जिन्हें मुस्लिम वोटबैंक से अपने अधिकतर वोट मिलते हैं। दूसरे स्तर पर इन्हें सम्भव बनाने वाले हैं, जिनमें वामपंथी पत्रकार और नक्सली-इस्लामिस्ट रूझानों वाले एक्टिविस्ट्स हैं। वे उकसाने वालों के साम्प्रदायिक संदेशों को आगे लेकर जाते हैं।
तीसरे स्तर पर हिस्ट्रीशीटर्स हैं, जिनमें रैडिकलाइज्ड नौजवान और आपराधिक गतिविधियों में संलग्न रहने वाले शामिल हैं। इनकी एक ही योग्यता है और वह है हिंसा करना। ये तीनों लेयर्स एक-दूसरे के साथ मिलकर बड़े सुगम तरीके से काम करती हैं। एक से दूसरे फिर तीसरे तक मैसेज जाते हैं। इनकी प्लानिंग बड़ी कमाल की होती है। टाइमिंग का ध्यान रखा जाता है और साम्प्रदायिक उपद्रव के दिन को बड़े ऐहतियात से चुना जाता है।
अमूमन यह तब होता है, जब विदेश से कोई हाई-प्रोफाइल मेहमान भारत आने वाला होता है, जिसके साथ अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी होता है। फरवरी 2020 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने परिवार और विदेशी पत्रकारों के भारी हुजूम के साथ दिल्ली पहुंचे तो देश की राजधानी दंगों से जल उठी थी। ट्रम्प के जाते ही दंगे खत्म हो गए। काम पूरा हो गया था।
भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि पर दुनिया के सामने सफलतापूर्वक दाग लगा दिया गया था। हाल ही में जहांगीरपुरी, खरगोन और हुबली में हुए साम्प्रदायिक दंगों के पीछे भी यही पैटर्न दिखाई देता है। पहले तो उकसाने वाले उचित समय चुनते हैं। फिर वे किन्हीं साम्प्रदायिक मामलों को तूल देते हैं। इस बार ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की यात्रा सोने पर सुहागा साबित हुई।
उकसाने वालों को पता था कि जॉनसन के साथ घोर मोदी-विरोधी ब्रिटिश मीडिया आने वाला है। जैसे ही टाइमिंग सेट हुई, दूसरी कड़ी एक्शन में आई। सोशल मीडिया पर भाजपा-विरोधी एक्टिविस्टों और पत्रकारों द्वारा मैसेज भेजे जाने लगे। टूलकिट का इस्तेमाल किया गया। 2021 में गणतंत्र-दिवस के दंगों की योजना बनाने में इन टूलकिट की भूमिका को एक्सपोज किया जा चुका था।
इस बार दिए जाने वाले संदेश ज्यादा गूढ़ थे, लेकिन मनसूबे पहले जैसे ही थे। फिर हिस्ट्रीशीटर्स हरकत में आ गए। 16 अप्रैल के दिन हमले शुरू हुए। पहली बार अनेक दंगाइयों पर नेशनल सिक्योरिटी एक्ट के तहत मामले दर्ज किए गए। आगामी 3 मई को ईदुल-फितर और अक्षय तृतीया के पर्व एक साथ आ रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद आप मान लीजिए कि वह दिन शांतिपूर्ण तरीके से निकल जाएगा। क्योंकि मूल लक्ष्य पहले ही अर्जित किया जा चुका है और वह है एकता और शक्ति का प्रदर्शन।
मनोवैज्ञानिक रूप से बात करें तो अजान के लिए लाउडस्पीकर, सड़कों पर नमाज पढ़ना, हिजाब पहनना आदि मुस्लिम पहचान को मजबूत बनाने के लिए हैं। भारतीय मुस्लिमों के पुरखों ने 1947 में पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था। वे भारत में निष्ठावान और देशभक्त नागरिक की तरह रहना चाहते थे। पाकिस्तान के बजाय भारत को चुनने के ऐवज में कांग्रेस ने उन्हें पुरस्कृत भी किया। जहां पाकिस्तान इस्लामिक तानाशाही बनता गया, वहीं भारत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में उभरा।
मुस्लिमों को पर्सनल लॉ का पालन करने की अनुमति दी गई थी, जबकि स्वयं हिंदू पर्सनल लॉ 1955 में जाकर बनाया गया था। जल्द ही मुस्लिम एक महत्वपूर्ण वोटबैंक बन गए और कांग्रेस द्वारा उन्हें मोस्ट फेवर्ड कम्युनिटी का दर्जा दे दिया गया। 1977 में कांग्रेस-राज के अंत के बाद देश का सामाजिक ताना-बाना बदल गया था। 1980 के दशक में शाहबानो प्रकरण और अयोध्या में शिलान्यास के बाद जो साम्प्रदायिक राजनीति उभरी, वह विगत 35 वर्षों में बढ़ती चली गई है। 1980 और 1990 के दशक में भाजपा का उदय इसी का परिणाम था।
आम हिंदू वर्षों से अंकुश में था, किंतु उसने अब धार्मिक पहचान के पुनरुत्थान को अनुभव किया है। मुस्लिमों को लगने लगा कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। मोदी के उदय ने रही-सही कसर पूरी कर दी। भारत का दंगा-उद्योग सक्रिय हो गया। अनुभव तो यही बताते हैं कि भारत में साम्प्रदायिक दंगे एक पक्ष द्वारा छेड़े जाते हैं। 1969 में गुजरात में हिंदू साधुओं और मंदिर पर हमला किया गया था, 2002 में गोधरा में 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया गया। इस दंगा-उद्योग का इतिहास बहुत लम्बा और हिंसक है, इसे अब बंद करने का समय आ गया है।
साम्प्रदायिक उपद्रव के दिन को बड़े ऐहतियात से चुना जाता है। अमूमन यह तब होता है, जब विदेश से कोई हाई-प्रोफाइल मेहमान भारत आने वाला होता है, जिसके साथ अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी होता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Tagsओपिनियन
Gulabi Jagat
Next Story