सम्पादकीय

अरुण यादव के रूठ जाने से OBC को साधना कांग्रेस के लिए आसान नहीं?

Gulabi
4 Oct 2021 2:56 PM GMT
अरुण यादव के रूठ जाने से OBC को साधना कांग्रेस के लिए आसान नहीं?
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मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव ने खंडवा लोकसभा सीट के उपचुनाव में टिकट की अपनी दावेदारी वापस ले ली है

मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव ने खंडवा लोकसभा सीट के उपचुनाव में टिकट की अपनी दावेदारी वापस ले ली है. यादव वजह पारिवारिक बता रहे हैं. लेकिन, कांग्रेस के नेता मान रहे हैं कि वे रूठकर घर बैठने जा रहे हैं. यादव के अचानक यूं रूठ जाने से कांग्रेस अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं? यादव दो बार सांसद रह चुके हैं. पिछला लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद कमलनाथ ने पूरी तरह से उन्हें हाशिए पर डाल रखा है. उप चुनाव में उनकी उम्मीदवार को भी कमलनाथ खारिज कर चुके हैं. माना जा रहा है कि यादव ने अपना सम्मान बचाने के लिए टिकट की दावेदारी से कदम पीछे खींचे हैं.

अरुण के पिता सुभाष यादव को भी हुए थे गुटबाजी का शिकार
राज्य में कांग्रेस की मौजूदा राजनीति अभी भी वैसे ही है, जैसी पिछले चार दशक से भी अधिक समय से चली आ रही है. राजनीति के कुछ मुख्य पात्र अभी भी अंगद के पांव की तरह मजबूत हैं. चार दशक पहले की राजनीति में शुक्ल बंधुओं (श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल) को छोड़ दिया जाए तो कमलनाथ के अलावा अर्जुन सिंह और माधवराव सिंधिया गुट के बीच कांग्रेस बंटी हुई थी. अस्सी के दशक में कमलनाथ ने अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री बनवाया. नब्बे के दशक में दिग्विजय सिंह का साथ दिया. अर्जुन सिंह के गुट में दिग्विजय सिंह के अलावा सुभाष यादव भी कद्दावर नेता थे. सहकारिता क्षेत्र से जुड़े होने के कारण उनकी पकड़ किसानों पर थी. यादवों के वे सर्वमान्य चेहरा थे. अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में ही ओबीसी चेहरों को कांग्रेस की राजनीति में आगे बढ़ने का मौका मिला. 1993 में कांग्रेस को बहुमत मिला तो अर्जुन सिंह ने मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए सुभाष यादव का नाम आगे बढ़ाया. लेकिन, बने दिग्विजय सिंह. सुभाष यादव दस साल तक उनके मंत्रिमंडल में उप मुख्यमंत्री रहे. 2003 में कांग्रेस से सत्ता से बाहर हुई तो सुभाष यादव प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बना दिए गए. सुभाष यादव के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत को पुत्र अरुण यादव और सचिन यादव संभाल रहे हैं
विधानसभा चुनाव में जीत की जमीन तैयार करने में रही अरुण की भूमिका
अरुण यादव लगभग साढ़े चार साल तक मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे हैं. 2018 के विधानसभा चुनाव से कुछ माह पहले उन्हें पद से हटाकर कमलनाथ को अध्यक्ष बनाया गया. कांग्रेस की जीत का श्रेय भी अरुण यादव के संघर्ष को नहीं मिला. मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता हितेष वाजपेयी कहते हैं कि विपक्षी दल के अध्यक्ष के तौर पर जो संघर्ष यादव ने किया,उसका ही फायदा चुनाव में कांग्रेस को मिला. कमलनाथ के लिए जनता ने वोट नहीं किया था. वाजपेयी कहते हैं कि कमलनाथ को अपने सिवा कोई दिखाई नहीं देता. अरुण यादव की राजनीतिक राह मुश्किल करने के लिए ही कमलनाथ ने उनके भाई सचिन यादव की पीठ पर हाथ रखा हुआ है. उन्हें अपने मंत्रिमंडल में कृषि मंत्री भी बनाया था. सचिन यादव अपने पिता सुभाष यादव के प्रभाव वाली सीट कसरावद से विधायक हैं. कसरावद खरगोन लोकसभा सीट का हिस्सा है. यह लोकसभा सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित है. 2009 से पहले यह सीट सामान्य वर्ग के लिए थी. सुभाष यादव यहां से चुनाव लड़ा करते थे. कहा जाता है कि परिसीमन में उनके प्रभाव को कम करने के लिए ही इसे आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित कराया गया.
अरुण की उपेक्षा का कांग्रेस को होगा नुकसान?
खंडवा की जिस लोकसभा सीट पर उपचुनाव हो रहे हैं, इस सीट पर यादव वोटर बेहद निर्णायक माने जाते हैं. अरुण यादव ने वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव इस सीट से ही जीता था. इससे पहले वे खरगोन से उप चुनाव लड़कर जीते थे. लगातार दो चुनाव की हार अब उनके रास्ते की बड़ी बाधा बनकर सामने आई है. यद्यपि कुछ दिनों पहले पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने उनकी दावेदारी का समर्थन किया था. अरुण यादव ने चुनाव की तैयारियां तेज कर दी थीं. लेकिन, कमलनाथ की पसंद यादव नहीं बन पा रहे हैं. यादव के करीबियों का कहना है कि 2019 का चुनाव तो राहुल गांधी भी हार गए थे? 2019 में मध्यप्रदेश में कांग्रेस केवल एक सीट छिंदवाड़ा की जीत पाई थी.
कमलनाथ के पुत्र नकुल नाथ सांसद हैं. यादव का कद बढ़ता है तो नकुल नाथ के अलावा जयवर्द्धन सिंह की राह भी कठिन होगी. दिग्विजय सिंह के पुत्र जयवर्द्धन सिंह विधायक हैं. जयवर्द्धन सिंह के पास कमलनाथ मंत्रिमंडल नगरीय विकास एवं आवास जैसे वजनदार विभाग थे. कांग्रेस की राजनीति में जो युवा चेहरे सक्रिय हैं,उनमें जयवर्द्धन सिंह का नाम सबसे ऊपर रहता है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में चले जाने से ग्वालियर-चंबल अंचल में जयवर्द्धन सिंह को सक्रिय किया जा रहा है.
दावेदारी छोड़ने के पीछे की राजनीतिक वजह
कांग्रेस पार्टी में अरुण यादव की उपेक्षा के साथ-साथ यह चर्चाएं भी चलीं कि वे भाजपा में शामिल हो रहे हैं. उन्होंने इसका खंडन भी किया. प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा उनके भाजपा में शामिल होने के सवाल पर कहते हैं कि पार्टी की विचारधारा से सहमत हर व्यक्ति के लिए दरवाजे खुले हैं. यादव के मैदान से हटने की घोषणा से भाजपा उत्साहित है. रविवार सुबह भाजपा ने आदिवासी क्षेत्र में कांग्रेस की नेता सुलोचना रावत और उनके बेटे विकास रावत को इंट्री दी थी. शाम को यादव ने दावेदारी वापस ले ली. हिन्दी भाषी राज्यों की राजनीति के लिहाज से यादव वोटर बेहद महत्वपूर्ण हैं. उत्तरप्रदेश और बिहार में मुलायम सिंह और लालू यादव को अपनी जाति का लाभ भी मिला.
2014 में जब अरुण यादव को मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया था, उस वक्त उत्तरप्रदेश के यादवों को साधने की रणनीति का वे हिस्सा थे. दिग्विजय सिंह ने ही उनका नाम आगे बढ़ाया था. इसके बाद भी उत्तरप्रदेश के यादव कांग्रेस के पक्ष में नहीं आए. मध्यप्रदेश में जरूर अरुण यादव को अपने पिता की विरासत का लाभ मिला. विरासत में उन्हें राजनीतिक प्रतिद्वंदी भी मिले. मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता भूपेंद्र गुप्ता कहते हैं कि अरुण यादव को जिम्मेदारी के साथ हर नेता का साथ भी मिला. कांग्रेस कमेटी ने जब भी कोई आंदोलन किया हर नेता ने उसमें भागीदारी कर सफल बनाया.
क्या सचिन यादव बन पाएंगे भाई अरुण का विकल्प
सरकारी दावों पर यकीन किया जाए तो मध्यप्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी पचास प्रतिशत से अधिक है. सबसे ज्यादा यादव और लोधी वोटर हैं. अरुण यादव का विकल्प उनके भाई सचिन यादव को ही माना जा रहा है. जबकि पार्टी के पास बरगी विधायक संजय यादव जैसे दूसरे चेहरे भी है. जबकि भाजपा में यादव चेहरा उभरकर नहीं आ पाया है. उच्च शिक्षा मंत्री मोहन यादव इस वर्ग से ही हैं. राज्य में पिछड़ा वर्ग की आबादी हर अंचल में है. बुंदेलखंड में भी यादव वोटर हैं और ग्वालियर अंचल में भी. अरुण यादव ने खंडवा से अपनी दावेदारी वापस लिए जाने के बारे में कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा है. यादव ने प्रभारी महासचिव मुकुल वासनिक से मुलाकात कर अपने निर्णय के बारे में बताया है. यादव ने कहा कि उन्होंने पारिवारिक कारणों से चुनाव न लड़ने का फैसला किया है. दो नाम भी उन्होंने टिकट के लिए सुझाए हैं. सुनीता सकरगाय और नरेंद्र पटेल.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

दिनेश गुप्ता
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक, राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं. देश के तमाम बड़े संस्थानों के साथ आपका जुड़ाव रहा है.


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