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आदित्य नारायण चोपड़ा; देश की राजनीति में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने के लिए सबसे ज्यादा इस पक्ष पर विचार किया जाता है कि सत्ता की मुख्यधारा में समाज के अलग-अलग तबकों को प्रतिनिधित्व मिले। इस दृष्टि से देखें तो राष्ट्रपति पद के लिए राजग की ओर से ओडिशा की जनजातीय पृष्ठभूमि से आने वाली द्रौपदी मुर्मू का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है। इससे यह सशक्त संदेश गया है कि भाजपा नीत राजग आदिवासी समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व दिलाने के प्रति गम्भीर है। इससे पहले मौजूदा राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविन्द को भी अनुसूचित जातियों के बीच का चेहरा माना गया था। द्रौपदी मूर्मू को ओडिशा में जमीनी स्तर की एक मुखर राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर देखा जाता रहा है। उनका जीवन गरीबी के संघर्ष में बीता है। आदिवासी महिलाओं की बात की जाए तो उनकी स्थिति शहरी महिलाओं से अलग होती है। आज भी प्रगतिशील भारत में आदिवासियों की स्थिति काफी पिछड़ी हुई है। उनकी जीवनशैली आज के आधुनिक भारत में काफी पीछे छूटी हुई है। आज जब आदिवासी महिलाएं हाशिये पर चली गईं तो उन्हीं के बीच एक ऐसी महिला भी उभरकर सामने आई, जिसने आर्थिक समस्याओं के बावजूद न सिर्फ शिक्षा प्राप्त की, बल्कि महिलाओं के उत्थान में अपना योगदान भी दिया।पार्षद से लेकर राज्यपाल तक उन्होंने कई संवैधानिक पदों को सम्भाला। उन्होंने जनजाति समाज को, समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का भी काम किया। आज वह भारत के सर्वोच्च पद पर बैठने के लिए आगे बढ़ रही हैं। उन्हें लगातार समर्थन मिल रहा है। द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना लगभग तय हो चुका है। राजग का पलड़ा तो पहले से भी भारी था लेकिन जिस तरह से उन्हें विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त हो रहा है, उससे साफ है कि विपक्षी दलों के प्रत्याशी यशवंत सिन्हा केवल सांकेतिक लड़ाई लड़ रहे हैं। द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार घोषित करने के साथ ही बीजू जनता दल का समर्थन सुरक्षित हो गया था। इसके बाद वाईएसआर ने भी उन्हें समर्थन दे दिया। प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के नेता और समाजवादी पार्टी के विधायक शिवपाल सिंह यादव, सुभा सपा नेता ओपी राजभर, जनसत्ता दल के नेता राजा भैया और बहुजन समाज पार्टी के इकलौते विधायक उमाशंकर सिंह ने भी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करने की घोषणा कर दी। राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना ने भी राजग उम्मीदवार को अपना समर्थन देने का ऐलान कर दिया। इसका अर्थ यही है कि महाराष्ट्र विधानसभा में उद्धव समर्थक 16 विधायक और शिवसेना के बागी हो चुके विधायको का वोट भी द्रौपदी मुर्मू को ही मिलना तय है। हालांकि शिवसेना ने यह स्पष्ट किया है कि द्रौपदी मुर्मू का मतलब भाजपा का समर्थन करना नहीं है। शिवसेना ने यह फैसला जनता की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए किया है। शिवसेना ने इससे पहले भी 2007 में प्रतिभा पाटिल और 2012 में प्रणव मुखर्जी का राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन किया था।संपादकीय :वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब फेसबुक पेज की धूमभारत की बढ़ती आबादीभारत की बढ़ती आबादीट्विटर डील रद्द क्यों हुईमां काली और प्रधानमंत्री मोदीमजहबी जुनून के खिलाफ संदेशवैसे तो राष्ट्रपति पद जैसे सर्वोच्च पद के उम्मीदवार को लेकर आम सहमति बननी चाहिए थी लेकिन अब आम सहमति एक मृग मरीचिका ही बन चुकी है। यशवंत सिन्हा विपक्ष की लड़ाई जरूर लड़ रहे हैं लेकिन उस विपक्ष में भी दरारें हैं। 1952 से लेकर 14 में से 13 राष्ट्रपति चुनाव जोरदार टक्कर के रहे हैं। इसकी मुख्य वजह प्रधानमंत्री और उससे विरोधियों का कठोर रवैया ही रहा। अब तक के 14 राष्ट्रपतियों में से आधे से अधिक या तो दक्षिण भारत से रहे हैं या उच्च जाति से रहे हैं। क्योंकि वर्तमान राष्ट्रपति दलित हैं और प्रधानमंत्री मोदी हमेशा ही अलग लोगों को सामने लाकर चौंकाते रहे हैं। उन्होंने राज्यपाल, मंत्री और सलाहकारों के रूप में अंजान लोगों को ही चुना है। इन चुनावों में राजग ने बहुत सोच-समझ कर अपना दाव चला और द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवर बनाकर विपक्ष के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बन जाने के कई अर्थ होंगे। देश की राजनीति में सामाजिक तबकों के प्रतिनिधित्व क लेकर बहस चलती रहती है। उसमें द्रौपदी मुर्मू का चुनाव एक प्रतीकात्मक लेकिन व्यापक महत्व का होगा। एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति भवन में पहुंचाने के लिए विपक्षी दलों को भी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचना होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि इसके जरिये आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा अपना विस्तार चाहेगी। राष्ट्रपति पद के लिए कवायद केवल 330 एकड़ जमीन, 340 कमरे, ढाई किलोमीटर लम्बे गलियारों वाले परिसर में रहने के लिए नहीं होती बल्कि संवैधानिक जिम्मेदारियां निभाने के लिए होती है। उम्मीद है कि द्रौपदी मुर्मू का कार्यकाल जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरेगा।