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By आशुतोष चतुर्वेदी
द्रौपदी मुर्मू आज देश के राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण लेंगी. यह इस दृष्टि से बड़ी घटना है कि देश के आदिवासी समुदाय से पहला व्यक्ति और वह भी एक महिला दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्रपति बन रही हैं. किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए यह बड़े मान की बात है कि देश के सबसे वंचित तबके की कोई महिला देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच रही है. यह ऐतिहासिक घटना दुनियाभर के लिए एक मिसाल है.
अमेरिका जैसे सबसे पुराने लोकतंत्र में भी महिलाओं और आदिवासी रेड इंडियन समाज को लेकर एक संकुचित नजरिया रहा है. यही वजह है कि अमेरिका में आज तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बन सकी है. हिलेरी क्लिंटन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अमेरिकी समाज आज भी किसी महिला को राष्ट्रपति बनाने के लिए तैयार नहीं है और उसे अपना नजरिया बदलना होगा.
जिस अमेरिकी लोकतंत्र का इतिहास 200 साल से ज्यादा पुराना हो, वहां हिलेरी क्लिंटन राष्ट्रपति पद के लिए पहली महिला उम्मीदवार बनी थीं, पर जीत नहीं पायी थीं. उनसे पहले तक अमेरिका के किसी दल ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के योग्य किसी महिला को नहीं माना था. उन्होंने हार के बाद अपनी किताब 'व्हाट हैपेंड' में लिखा है कि यह पारंपरिक सोच नहीं है कि महिलाएं नेतृत्व करें या राजनीति में शामिल हों. यह सोच न तो पहले थी और न ही आज है.
उनकी यह बात भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका को लेकर समाज के नजरिये पर भी खरी उतरती है. भारतीय राजनीति में भी महिलाओं की पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं है. हमारा संविधान सभी महिलाओं को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार की गारंटी देता है. इसके बावजूद देश में महिलाओं की स्थिति अब भी मजबूत नहीं है. द्रौपदी मुर्मू को लेकर भी कुछ आलोचक सवाल उठा रहे हैं.
क्या उनके राष्ट्रपति चुने जाने से आदिवासी समाज की कायापलट हो जायेगी! उन्हें यह समझना होगा कि जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, ऐसे में किसी महिला, वह भी सबसे वंचित आदिवासी समुदाय से, का चुना जाना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है. किसी भी देश व समाज में रातों-रात परिस्थितियां नहीं बदलती हैं, लेकिन द्रौपदी मुर्मू के समर्थन में जिस तरह सभी दलों के लोग आगे आये हैं, वह इस बात का प्रमाण है कि सर्वसमाज यह स्वीकार करता है कि शीर्ष पद पर सबसे वंचित समुदाय का प्रतिनिधित्व वक्त की जरूरत है.
द्रौपदी मुर्मू बेहद सामान्य परिवार से आती हैं. उनका देश के शीर्ष पद पर पहुंचना एक मिसाल है. उनका जन्म ओड़िशा के मयूरभंज जिले में एक आदिवासी परिवार में हुआ था. अपने गृह जनपद से आरंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद मुर्मू ने भुवनेश्वर से स्नातक की डिग्री ली. उसके बाद उन्होंने एक शिक्षक के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की. द्रौपदी मुर्मू का विवाह श्यामाचरण मुर्मू से हुआ. इस दंपत्ति की तीन संतानें हुईं- दो बेटे और एक बेटी.
उनके दोनों बेटों और पति का असमय निधन हो गया. इन सदमों से गुजरना द्रौपदी मुर्मू के लिए बेहद मुश्किल दौर था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और आदिवासी समाज के लिए कुछ करने के लिए राजनीति में कदम रखा. उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत ओड़िशा के रायरंगपुर नगर पंचायत के पार्षद चुनाव में जीत से की. फिर वे रायगंज से विधायक बनीं और ओड़िशा में भाजपा व बीजू जनता दल की गठबंधन की सरकार में मंत्री भी रहीं.
बाद में वे झारखंड की पहली महिला राज्यपाल बनीं. इस दौरान प्रभात खबर से उनका विशेष अपनत्व रहा. वे प्रभात खबर के अनेक कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि रहीं. उन्होंने अन्य विषयों के अलावा आदिवासी समाज से जुड़े मुद्दों को प्रमुखता से उठाया.
हम आजादी के 75 साल का उत्सव मना रहे हैं, लेकिन आज भी आदिवासी समाज गरीबी, अभाव, शिक्षा व स्वास्थ्य से जुड़ीं मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है. उनका सबसे बड़ा मुद्दा उनका जंगल व जमीन है, जिन पर लोग विभिन्न तिकड़मों से कब्जा करना चाहते हैं. जो बात आदिवासी समाज को सबसे अलग करती है, वह है समाज में महिलाओं का स्थान और प्रगतिशील विचार. जिस महिला उत्थान और बराबरी की बात आज सारी दुनिया कर रही है, उसकी शुरुआत आदिवासी समाज में वर्षों पहले हो गयी थी.
उस समाज को करीब से देखें, तो पायेंगे कि किस तरह महिलाएं घर की परिधि से निकल कर काम करती हैं, पर्व-त्योहारों में आजादी से शरीक होती हैं. आदिवासी समाज में महिलाओं का समाज में बराबरी का स्थान बहुत सुकून देता है. आदिवासी समाज में दहेज रहित विवाह एक प्रेरणादायक उदाहरण है. उस समाज की लड़कियों को जब भी मौका मिला है, उन्होंने अपनी प्रतिभा को साबित किया है.
झारखंड की महिलाओं और लड़कियों की बात करें, तो विषम परिस्थितियों के बावजूद ने समय-समय पर उन्होंने अपना करिश्मा दिखाया है. हॉकी हो, तीरंदाजी हो या मुक्केबाजी हो, हर क्षेत्र में यहां की महिलाओं ने नाम कमाया है. झारखंड की सावित्री पूर्ति, असुंता लकड़ा, बिगन सोय ने अंतरराष्ट्रीय हॉकी में भारत का नाम रौशन किया. अगर आज झारखंड में जंगल बचा हुआ है, तो इसमें चामी मुर्मू जैसी अनेक महिलाओं का योगदान है.
कुछ वर्षों में सरकारी कोशिशों और सामाजिक जागरूकता अभियानों से महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार आया है. बदलाव शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के आंकड़ों में दिखते हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. मिड डे मील योजना बड़ी कारगर साबित हुई है. एक दशक पहले हुए सर्वेक्षण में शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी 55.1 प्रतिशत थी, जो अब 68.4 प्रतिशत तक पहुंच गयी है यानी शिक्षा के क्षेत्र में 13 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई है.
बाल विवाह की दर में गिरावट भी महिला स्वास्थ्य और शिक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण है. कानूनन अपराध घोषित किये जाने और जागरूकता अभियानों के कारण इसमें कमी तो आयी है, लेकिन बाल विवाह का चलन, खास कर गांवों में, अब भी है. मोदी सरकार की मुहिम से बैंकिंग व्यवस्था में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. शिक्षा और जागरूकता का सीधा संबंध घरेलू हिंसा से है. अब इन मामलों में भी कमी आयी है. रिपोर्टों के अनुसार वैवाहिक जीवन में हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 37.2 से घट कर 28.8 प्रतिशत रह गया है. निश्चित ही महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में प्रगति हुई है, लेकिन यह अब भी नाकाफी है.
Gulabi Jagat
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