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- संदेह, सवाल और सत्य
रोहित कुमार: भारतीय दर्शन और अध्यात्म में यह बहस लंबी है कि ईश्वर और सृष्टि को हम किस रूप में देखें-मानें। द्वैत-अद्वैत की यह बहस इतनी विस्तृत है कि आज भी इस बारे में निर्णायक तौर पर कुछ भी कहना कठिन है। इस बहस का एक छोर स्वाभाविक तौर पर लोगों की आस्था से भी जुड़ा है। यहां जो बात समझने की है, वह यह कि आस्था का सरोकार महज ज्ञान की सूक्ष्मता से न तो तय होता है और न ही जुड़ता है। यह सरोकार श्रद्धा से ज्यादा जुड़ा है। लिहाजा, यहां तर्क और बहस की ज्यादा गुंजाइश नहीं रह जाती है। वैसे स्थिति तब जरूर प्रेरक और स्वीकार्य हो जाती है जब ज्ञान और आस्था का साझा विकसित होता है। भारत में भक्तिकाल का विस्तार इस साझे का स्वर्णिम सर्ग है।
आज दौर भौतिकता का है। जीवन की सहजता और सरलती कहीं खो सी गई है। जीवन के अभ्यास में भक्ति का स्थान हार्दिक से ज्यादा तकरीबन औपचारिक या पाखंडी है। भय से या पुण्य कामना के साथ हमारा मन जब-तब इस ओर जाता है। इस कारण आस्था और ईश्वर पर नए सिरे से बात करने की दरकार पैदा होती है। इस सिलसिले में और बात करने से पहले एक प्रसंग की चर्चा करते हैं, जिससे बात करने का सिलसिला आसान हो, बोधगम्य हो। एक बार किसी ने महर्षि अरविंद से पूछा- 'डू यू बिलीव इन गाड?' क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं? इस पर अरविंद ने कहा- 'नो, आइ डू नाट बिलीव, आइ नो।' मैं विश्वास नहीं करता हूं, मैं जानता हूं।
महर्षि अरविंद का उत्तर ज्ञान और भक्ति का वह प्रस्थान है, जहां से आगे बढ़ते हुए हम मन की सारी दुविधा खोते जाते हैं। दरअसल, ज्ञान हर तरह के संदेह का समाधान है। ज्ञान ही संदेह की मृत्यु बन सकता है। जैसे प्रकाश अंधकार की मृत्यु बनता है, वैसे ही ज्ञान संदेह की मृत्यु बनता है। विश्वास देकर हम अपने आपको धोखा दे लेते हैं। हम सोचते हैं कि हमने विश्वास कर लिया, बात समाप्त हो गई। विश्वास से बात समाप्त नहीं होती, भीतर संदेह बना ही रहता है। भीतर संदेह होता है, ऊपर विश्वास होता है। इस तह जीवन भर संदेह नष्ट नहीं होता।
ज्ञान और ईश्वर की चर्चा में आगे और सूक्ष्मता में जाएं तो यह सत्य से जुड़ता है। सत्य से जुड़ी इस सूक्ष्मता को थोड़ा तार्किक आधार पर देखें तो जो एक सवाल स्वाभाविक तौर पर सामने आएगा वह यह कि क्या ऐसा कोई सत्य नहीं होगा जीवन में जिस पर संदेह न किया जा सके? इस सवाल की चर्चा ओशो ने बहुत सुंदर तरीके से की है।
वे कहते हैं कि ऐसा सत्य है। लेकिन हम तो संदेह ही नहीं करते, इसलिए उसको खोज कैसे पाएंगे? सोने को आग में डालते हैं, सोना बच जाता है और जो व्यर्थ है वह जल जाता है। संदेह की आग में जो सत्य नहीं है वह जल जाएगा और जो सत्य है वह बच जाएगा। लेकिन संदेह की आग में जिसने सत्य के स्वर्ण को डाला ही नहीं, वह कभी जान भी नहीं पाएगा उसके पास स्वर्ण है या मिट्टी। संदेह की आग में डालना जरूरी है सारे विश्वासों को, ताकि जो कचरा है वह जल जाए। और जो न जल सके, अछूता निकल आए अग्नि के बाहर, वह आपके जीवन को बदल देगा, वह होगा सत्य।
ओशो दार्शनिक तो हैं पर व्याख्या का उनका तरीका थोड़ा भिन्न है। वे तर्क से नहीं भागते बल्कि तर्क के बीहड़ में जान-बूझकर उतरते हैं। ऐसा करते हुए वे ज्ञान या सत्य की दिव्यता तक पहुंचते हैं। इस दौरान जहां तमाम प्रश्नों और तर्कों से वे न सिर्फ जूझते हैं बल्कि उसे एक समाधान की छोर तक ले जाते हैं। वे कहते हैं कि सत्य को संदेह से डरने की जरूरत नहीं है।
जो डर रहा है, उसके पास सत्य नहीं होगा। उसके पास अगर होगा तो वह होगा थोथा विश्वास। इसलिए भय मालूम पड़ता है कि मैं कहीं भटक न जाऊं। कहीं मैं जिस विश्वास को पकड़े हूं, वह जलकर राख न हो जाए। जो जल सकता है, वह जल ही जाना चाहिए, उसके बचे होने के भ्रम में रहने की कोई जरूरत नहीं है।
संदेह की यात्रा किए बिना कोई सत्य की मंजिल पर न कभी पहुंचा है न पहुंच सकता है। हम तो विश्वास कर लेते हैं। इसलिए नि:संदिग्ध सत्य का कभी कोई अनुभव नहीं हो पाता। जब हमें कोई ऐसा सत्य ही न मिलता हो, जो नि:संदिग्ध है। जब कोई स्वयं की चेतना के पास आकर यह अनुभव करता है कि नहीं, इस पर संदेह असंभव है, तब वह इसकी खोज में और गहरे उतर सकता है।
विश्वास को पकड़ने के कारण ही हम सत्य को नहीं पकड़ पाते हैं। जिन हाथों में विश्वास की राख है उन हाथों में ही सत्य का अंगार भी संभव है। सत्य को जो छोड़ता है, सत्य को जो छोड़े हुए है, वही 'सब्स्टीटयूट' की तरह, पूरक की तरह विश्वास को पकड़े हुए है। मनुष्य जब तक इस विश्वास के पूरक को पकड़े रहेगा, तब तक सत्य की आकांक्षा और प्यास भी पैदा नहीं होती। इसलिए जीवन की खोज में विश्वासों की राख को झाड़ देना स्वयं से, बहुत महत्वपूर्ण अर्थ रखता है। लेकिन हमें यह समझाया जाता रहा है कि विश्वास के कारण ही हम जीवन में कहीं पहुंच सकते हैं।