सम्पादकीय

मंतव्य की ईमानदारी पर शक

Gulabi
23 Sep 2021 5:55 AM GMT
मंतव्य की ईमानदारी पर शक
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आठ साल चला अदालत का हथौड़ा एकदम भरभरा गया, जब हाई कोर्ट ने दो सिविल जजों की नियुक्तियों को खारिज कर दिया

दिव्याहिमाचल.

आठ साल चला अदालत का हथौड़ा एकदम भरभरा गया, जब हाई कोर्ट ने दो सिविल जजों की नियुक्तियों को खारिज कर दिया। यह चयन प्रक्रिया की खामियों और अनावश्यक दखल की ओर इशारा नहीं, बल्कि कानून की परिधि में न्याय की विडंबना भी है कि जो दो जज आठ साल तक फैसले सुनाते रहे, वे खुद कानून की परिभाषा में आ गए। प्रदेश लोक सेवा आयोग की पद्धति व प्रक्रिया के कारण चयन की परिणति धराशाही हुई है। बिना विज्ञापन के हुई नियुक्तियों में एक पूर्व परीक्षा की चयन सूची का इस्तेमाल गैर कानूनी होने के साथ-साथ व्यवस्थागत नाइनसाफी भी है। यहां मानवीय अदालत ने मामले के कुंड से न केवल प्रक्रिया की खामी, संदेह की परत और चयन की मिलीभगत हटाई, बल्कि यह संदेश भी दिया कि गलत तरीके से किसी सेवा में आया बड़े से बड़ा व्यक्ति भी अक्षम्य है। मामला 2013 का है, जब विज्ञापित पदों के लिए आठ नियुक्तियां हुईं। इनमें से छह रिक्त पद थे, जबकि दो अन्य रिक्त होने वाले थे। आगे चलकर दो अतिरिक्त पदों के लिए भी रिक्तियां खड़ी होती हैं, लेकिन इन्हें बिना विज्ञापन और पुरानी चयन सूची के आधार पर ही भर लिया जाता है।


किसी भी चयन सूची की प्रासंगिकता उसके संदर्भों व विज्ञापन की शर्तों के अनुरूप ही वैध मानी जा सकती है और इसी ताने-बाने को स्पष्ट करते हुए हाई कोर्ट ने दो जजों की न्यायिक सेवा को अमान्य करार दिया है। प्रदेश लोक सेवा आयोग के एक अहम निर्णय के दुष्परिणाम सामने हैं। अपनी पद्धति में सुराख करने के पीछे मंतव्य की ईमानदारी पर प्रश्न पैदा होता, साथ ही योग्य उम्मीदवारों की कतार में संदेह घर कर जाता है। जो लोग आठ साल तक न्याय की कुर्सी पर बैठे, उस सफर के साक्ष्य में ये नियुक्तियां राज्य लोक सेवा आयोग के चरित्र को दांव पर लगाती हैं। बेशक चयन सूची में दर्ज लोग पूरी प्रक्रिया का हिस्सा रहे होंगे, फिर भी इस कवायद ने न्याय देने वालों को ही संदेह के घाव दे दिए। आठ साल का फासला किसी के करियर में अवरोध पैदा कर गया, तो कहीं नैतिकता के सवाल पर अलार्म बजा गया।

राज्य लोक सेवा आयोग की प्रतिष्ठा व इसका महत्त्व प्रदेश के उच्च पदों की विरासत सरीखा है, जहां ब्यूरोक्रेसी पनपती है या न्याय की परिक्रमा मजबूत होती है। कई पद आयोग की निगाहों से निकलते हैं और यही गरिमा आगे चलकर जन विश्वास की सीढि़यां चढ़ते हैं। हिमाचल का सुशासन व राज्य के संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल, एक तरह से लोक सेवा आयोग का शपथ पत्र है। विडंबना यह है कि कई बार गलत तरीके और प्रशिक्षण के कारण कई कमजोर हड्डियां राज्य के शरीर पर उभर आती हैं। यही विसंगतियां आगे चलकर सुशासन की अक्षम प्रवृत्ति बन जाती हैं। जाहिर है लोकतांत्रिक अंगों पर विराजित कार्यप्रणाली में सुधारों की दृष्टि से निरंतर परिवर्तन की जरूरत दिखाई देती है और इसकी शुरुआत आरंभिक नियुक्तियांे से ही होगी। ऐसे में माननीय अदालत का यह फैसला भले ही दो जजों की नियुक्तियांे के परिप्रेक्ष्य में आया है, लेकिन इसकी जद में पड़ताल शुरू होती है और इसके संदर्भों में अन्य पदों की नियुक्तियां भी आ सकती हैं। हिमाचल जैसे राज्य के लिए अदालत का यह एक तरह निर्देश है और सबक भी। निर्देश यह कि लोक सेवा आयोग के फैसले ने दो जजों की पृष्ठभूमि को अपनी प्रक्रिया के इस्तेमाल से संदेह में डाल दिया। दूसरी ओर इसके सबक गहरे हैं तथा आयोग को अपनी नियमावली से कार्यप्रणाली तक सुधारों की गुंजाइश तुरंत देख लेनी चाहिए। ऐसे चयन के विषय न तो साधारण हैं और न ही नजरअंदाज किए जा सकते हैं, अतः अदालती फैसले का मर्म आम जनता के बीच न्याय पर भरोसा बढ़ा देता है।
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