सम्पादकीय

दोहरी जिंदगी!

Gulabi
26 Oct 2020 11:49 AM GMT
दोहरी जिंदगी!
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देखने के एक तरीके से चीज एक तरह की दिखाई पड़ती है, जैसे ही ढंग बदल जाता है वह दूसरी तरह की दिखाई पड़ने लगती है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। देखने के एक तरीके से चीज एक तरह की दिखाई पड़ती है, जैसे ही ढंग बदल जाता है वह दूसरी तरह की दिखाई पड़ने लगती है. चीज, तो वही है, लेकिन हमारा देखने का नजरिया सारे मायने बदल देता है. यह जो देखने का तरीका, ढंग है यही जीवन की सबसे बड़ी समझ भी है और संकट भी. इन दिनों मुझे बड़ी संख्या में ऐसे युवाओं से बात करने का मौका मिल रहा है, जिनकी उम्र 20 से 30 वर्ष के बीच है. इनके सारे संकट एकदम बाहरी मालूम होते हैं, लेकिन जैसे-जैसे भीतर उतरते जाइए, पता चलता है कि सब कुछ गहन आंतरिक है!

इनमें से बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो एक तरह के मनोवैज्ञानिक भ्रम में हैं. गहरे मानसिक संकट में. दो तरीके का जीवन है, इनके पास. पहला वह, जिसमें बाहर से सब कुछ अच्छा-अच्छा दिखना चाहिए. दूसरा, जो भी है उसे अच्छा ही दिखाना है. किसी भी कीमत पर. भोपाल में मेरे एक मित्र अपने भाई को लेकर मेरे पास आए. जिसके व्यवहार में भारी परिवर्तन है.

बाहर से तंदुरुस्त दिखने वाले युवा के पास ठोस पूंजी नहीं है, लेकिन उसके खर्च और दिखावे में भी कोई कमी नहीं.

इसके पास सपनों की लंबी सूची है, लेकिन नींव के पत्थर नहीं है. जिन सपनों में नींव के पत्थर नहीं होते, वह अक्सर ही टूट जाते हैं. इस समय क्रेडिट कार्ड, बिजनेस लोन लेकर निजी 'शाही' जीवन जीने का चलन शुरू हो गया है. इस युवा का संकट भी यही है.

आत्मीयता और विश्वास के लंबे संवाद के बाद उसने मन के दरवाजे खोले! उसने बताया कि सारा समय और ऊर्जा एक उधारी को दूसरे उधारी से संभालने में ही चली जाती है. जो काम मिलता है उसकी बचत क्रेडिट कार्ड के ब्याज में खप जाती है. जब मैंने उन्हें सुझाव दिया कि चलिए क्रेडिट कार्ड तुरंत बंद कर देते हैं. इसका जो भी बकाया है, वह जमा कर देते हैं. तो उस युवा ने कहा, नहीं! इमरजेंसी के समय यही रकम काम आती है. उसी समय उनके भाई ने याद दिलाया कि जब-जब उसे पैसे की जरूरत हुई, तो हमेशा उसकी मदद की गई. छोटे भाई ने कहा, हां, लेकिन क्रेडिट कार्ड असल में अपने पास पैसा होने का आत्मविश्वास है. भले ही झूठा है, लेकिन इससे मुश्किल दिनों में मदद मिलती है! वह बड़ी मुश्किल से इस बात के लिए तैयार हुए कि सारे कार्ड बंद कर दिए जाएं और हमेशा सही जरूरत के समय बड़े भाई से मदद ली जाए.

परिवार/परिचित से मदद मांगने में संकोच, अहंकार आड़े आता है, जबकि क्रेडिट कार्ड में ऐसा कोई संकट नहीं. अब तो ऐसी स्थिति हो रही है कि युवा क्रेडिट लिमिट को ही अपना 'स्टैंडर्ड' मानने लगे हैं. यह ऐसी कर्जभरी दुनिया हमने बना ली है, जिससे बाहर निकलने का रास्ता तो है, लेकिन हमें मंजूर नहीं! हमारी जीवनशैली को बाजार ने एकदम अपनी जरूरत के हिसाब से बदल लिया है.

हमारे फैसले, हमारी समझ और विवेक अब हमारी जगह विज्ञापन तय करने लगे हैं. हम जीवन की कोमलता, पवित्रता और नैतिकता को इतना पीछे छोड़ आए हैं कि उसकी कमी का एहसास भी पुरानी बातें हो गईं.

लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि जब भी गांव में जल संकट गहराता है, हम लौटकर सूखे कुएं और तालाब के पास ही जाते हैं. हमारे संकट भीतर से शुरू होते हैं, प्रकट बाहर होते हैं, लेकिन केवल बाहरी नहीं होते. जब भी कोई संकट आए, यह जरूर समझना, देखना चाहिए कि वह कितना आंतरिक/बाहरी है!

Gulabi

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