सम्पादकीय

सोवत नींद न कीजै

Subhi
26 Jun 2022 4:02 AM GMT
सोवत नींद न कीजै
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हम ज्यादातर समय जागते हुए ही सोते रहते हैं। नींद की अवस्था में रहते हैं। अपने से बेखबर। अपने साथ जो कुछ हो रहा है, उससे बेखबर। अपने आसपास से अनजान। फिर अपने भीतर जो घटित हो रहा है

Written by जनसत्ता; हम ज्यादातर समय जागते हुए ही सोते रहते हैं। नींद की अवस्था में रहते हैं। अपने से बेखबर। अपने साथ जो कुछ हो रहा है, उससे बेखबर। अपने आसपास से अनजान। फिर अपने भीतर जो घटित हो रहा है, उसकी धमक कैसे सुनाई दे। एक अजीब-सी बेखयाली में जीते चले जाते हैं। 'बेखयाली' की अवस्था सूफी परंपरा में बहुत मूल्यवान है। मगर उस बेखयाली और हमारी अपने को लेकर बेपरवाही में अंतर है।

सूफी जिस बेखयाली, जिस बेहोशी में पहुंचना चाहते हैं, वहां तक पहुंचने का रास्ता कठिन साधना से तय होता है। वह निस्संगता की अवस्था है, अपने को भूल कर परम सत्ता से जुड़ जाने की अवस्था है। मगर उसके लिए पहले अपने को तो जान लें। जब तक खुद को नहीं जानेंगे, तब तक खुद से बाहर निकलेंगे कैसे। हम तो आंख पर पट्टी बांधे एक ऐसे घर में घुसे हुए हैं, जिसका रास्ता पता नहीं। सारे दरवाजे बंद।

बाहर जाने के रास्ते का ज्ञान नहीं। जब बाहर जाने का रास्ता पता ही नहीं, तो निकलेंगे कैसे। उसी बंद घर को हमने नियति मान ली है। उसी में रहने का अभ्यास कर लिया है। अपने सुख और सुविधा के सारे सरंजाम उसमें भरते जा रहे हैं। चिंता छोड़ दी है हमने कि इस घर से बाहर भी कुछ घटित हो रहा है। कुछ बहुत सुंदर, कुछ बहुत सार्थक, कुछ अलग।

जीवन के तत्त्व न तो बाहर हैं और न अंदर। इन दोनों के मध्य में कहीं हैं। दोनों के संतुलन से सधता है जीवन। मगर यह बेखयाली से नहीं सधता। सध ही नहीं सकता। हर समय आंख, कान, नाक खोल कर रखना पड़ता है। अपने भीतर और बाहर दोनों को देखना, महसूस करना पड़ता है। केवल यह तथ्य रूप में जान लेने से बात नहीं बनती कि जो बाहर है, वही भीतर है।

दोनों में कितना संतुलन है, यह जानना पड़ता है। जहां संतुलन गड़बड़ है, उसे ठीक करना पड़ता है। मगर हम तो इस कदर बेखबर हैं कि कहां असंतुलन है, उसे जानने की कभी कोशिश ही नहीं की। भीतर असंतुलन बढ़ता है, तो भाग पड़ते हैं डाक्टर के पास। वह मशीनों से असंतुलन पहचानने का प्रयास करता है। फिर दवाओं से उसे दबाने का प्रयास करता है। असंतुलन पर दवाएं परत चढ़ा देती हैं। परदा डाल देती हैं।

असंतुलन कुछ समय के लिए दिखना बंद हो जाता है। हम समझ लेते हैं कि स्वस्थ हो गए। 'स्व' में 'स्थित' हो गए। फिर वही बाहर-भीतर को लेकर बेपरवाही। जब स्व को जानते ही नहीं तो उसमें स्थित होंगे भी तो कैसे। स्वस्थ होंगे कैसे।

अगर मनुष्य में हर समय जागरण की अवस्था आ जाए, तो वह 'स्व' में 'स्थित' हो जाए। 'स्वस्थ' हो जाए। यह जागरण की अवस्था कठिन नहीं। बस, बेपरवाही, बेखयाली छोड़नी पड़ती है। हमारा शरीर हर वक्त संकेत देता रहता है, अपने भीतर चल रही गतिविधियों का। भीतर की हलचलों का। जैसे भूख का संकेत देता है, उसी प्रकार ज्यादा खा लिया, तो उसका भी संकेत देता है। जो शरीर के अनुकूल नहीं, उसका प्रतिकार करता है। उसे बाहर निकालने का प्रयास करता है। जैसे नाक में कोई गलत चीज घुस जाए तो छींक आती है। शरीर उसे जोर से बाहर फेंकने का प्रयास करता है।

जो शरीर के अनुकूल नहीं, उसे खाने से बरजता है। मगर हम तो जिद्दी ठहरे, बहुत कुछ शरीर में ऐसा डालते रहते हैं, जिसकी शरीर को जरूरत नहीं। फिर शरीर संकेत देना बंद कर देता है। वह मान लेता है कि हम तो बेपरवाह हैं। बेपरवाह के लिए कोई संकेत नहीं बना। रेल सीटी बजाती रहे, बेपरवाह आदमी को सुनाई नहीं देती। वह पटरियों के बीच चलता चला जाएगा। फिर रेल का क्या दोष। वह तो वही करेगी, जो होना है। इसे 'होनी' नहीं कहते, बेपरवाही में मुसीबत बेसाहना कहते हैं।

जागरण सबसे पहले अपने शरीर के प्रति करना होता है। शरीर के संकेतों को समझना, उनके अर्थ जानना पड़ता है। उनके कारणों की पहचान करनी पड़ती है। इसीलिए योग के जरिए सबसे पहले शरीर की साधना का महत्त्व है। अपने

12- शरीर के प्रति बेखयाली दूर हो गई, तो बाहर के संकेतों को समझना भी आसान हो जाता है। इस तरह बाहर और भीतर के बीच संतुलन बिठाना आसान हो जाता है। जब बाहर और भीतर की तरंगें सम पर आ जाती हैं, तो मन इन दोनों से परे कहीं स्थित हो जाता है। उसकी चंचलता समाप्त हो जाती है। वह स्थिर हो जाता है।

मगर आम आदमी की सारी समस्याएं खाने, सोने और मनोरंजन तक केंद्रित होती हैं। होती गई हैं। खाने को बढ़िया मिल जाए, कैसे मिले, कहां मिले इसकी चिंता में हम मन को दौड़ाए जाते हैं। खा लिया, तो अच्छी नींद कैसे आए, अच्छी नींद के लिए अच्छा बिस्तर कैसे जुटाएं, कमरे का वातावरण कैसे बेहतर बनाएं, इसकी फिक्र परेशान किए जाती है। फिर मनोरंजन का तो अंत नहीं।

मन का रंजन कैसे हो, मन प्रसन्न कैसे हो, इसकी तलाश तो चैन से रहने नहीं देती। फिर तो शरीर हर दिन एक नए शरीर की तलाश में भागता है, जीभ नए-नए स्वाद की तलाश में भटकाती है, आदमी नींद के लिए सुखकर बिस्तर और वातावरण की खोज में हलकान हुआ जाता है। इन्हीं सब से मन का रंजन होता है। अगर जागरण की अवस्था आ जाए और इन सारी भाग-दौड़ का कारण समझ जाएं, तो फिर बहुत सारी झंझटें रहें ही नहीं। बस, नींद में भी जागने का अभ्यास कर लें, शरीर के संकेतों को समझते, खोलते, सुलझाते रहें, तो नींद भी सुखकर हो जाए।


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