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- लागी छूटे न…

शायरी शुरू की तो पिताजी ने बड़ा डांटा। बोले-'बरखुरदार कोई अच्छा काम करो। यह बीमारी ठीक नहीं, लत लग गई तो छूटेगी नहीं। पिताजी के कथन की अनदेखी करके मैं गुपचुप में शायरी करने लगा। कविताएं लिखने लगा। प्रेमभरी वे कविताएं आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। एक दिन पिताजी ने मुझे फिर कविता करते रंगे हाथों पकड़ लिया। आग बबूला हो गए। बोले-'तुम अभी भी यह काम कर रहे हो? मैंने तुम्हें रोका था। बेटा जीवन भर रोओगे, न घर के रहोगे न घाट के। मैं फिर कहता हूं कि कविता से मुंह मोड़ लो। हम खाते-पीते लोग हैं, हमें यह काम शोभा नहीं देता। अभी तुम्हारा शादी-ब्याह भी नहीं हुआ है। कल यह बात फैल गई तो तुम्हारा विवाह होना जटिल हो जाएगा। लिखने का ही शौक है तो सुलेख लिखो, तुम्हारा हस्तलेख भी सुंदर नहीं है। मैंने कहा-'पिताजी, कविता मेरी नस-नस में समा गई है। मुझे नहीं लगता कि मैं इसे छोड़ पाऊंगा। कविता मेरे दिल का चैन है। मैंने इसे छोड़ा तो सब चौपट हो जाएगा।
